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________________ श्रीमद् राजचन्द्र इसका 'आवश्यक' ऐसा भी नाम है। आवश्यक अर्थात् अवश्य करने योग्य, यह सत्य है। इससे आत्माकी मलिनता दूर होती है, इसलिये अवश्य करने योग्य ही है। सायकालमे जो प्रतिक्रमण किया जाता है, उसका नाम 'देवसिय पडिक्कमण' अर्थात् दिवससंबधी पापका पश्चात्ताप, और रात्रिके पिछले भागमे जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वह 'राइय पडिक्कमण' कहलाता है। 'देवसिय' और 'राइय' ये प्राकृत भापाके शब्द हैं। पक्षमे किया जानेवाला प्रतिक्रमण पाक्षिक और सवत्सरमे किया जानेवाला प्रतिक्रमण सावत्सरिक कहलाता है। सत्पुरुषोने योजनासे बाँधा हुआ यह सुन्दर नियम है। कितने ही सामान्य बुद्धिमान ऐसा कहते है कि दिन और रात्रिका सबेरे प्रायश्चित्तरूप प्रतिक्रमण किया हो तो कुछ हानि नही है, परतु यह कहना प्रामाणिक नही है। रात्रिमे यदि अकस्मात् कोई कारण या मृत्यु हो जाये तो दिवससबधी भी रह जाये। प्रतिक्रमणसूत्रकी योजना बहुत सुन्दर है। इसके मूल तत्त्व बहुत उत्तम हैं। जैसे बने वैसे प्रतिक्रमण धैर्यसे, समझमे आये ऐसी भापासे, शातिसे, मनकी एकाग्रतासे और यत्नापूर्वक करना चाहिये। शिक्षापाठ ४१ : भिखारीका खेद-भाग १ एक पामर भिखारी जंगलमे भटकता था । वहाँ उसे भूख लगी इसलिये वह विचारा लड़खड़ाता हुआ एक नगरमे एक सामान्य मनुष्यके घर पहुंचा। वहाँ जाकर उसने अनेक प्रकारकी आजिजी की, उसकी गिडगिडाहटसे करुणार्द्र होकर उस गृहस्थकी स्त्रीने उसे घरमेसे जीमनेसे बचा हुआ मिष्टान्न भोजन लाकर दिया । भोजन मिलनेसे भिखारी बहुत आनदित होता हुआ नगरके बाहर आया, आकर एक वृक्षके नीचे बैठा, वहाँ जरा सफाई करके उसने एक ओर अपना बहुत पुराना पानीका घड़ा रख दिया। एक ओर अपनी फटी-पुरानी मलिन गुदडी रखी और एक ओर वह स्वय उस भोजनको लेकर बैठा । बहुत खुश होते हुए उसने वह भोजन खाकर पूरा किया। फिर सिरहाने एक पत्थर रखकर वह सो गया। भोजनके मदसे जरासी देरमे उसको आँख लग गयी। वह निद्रावश हुआ कि इतनेमे उसे एक स्वप्न आया। वह स्वय मानो महा राजऋद्धिको प्राप्त हुआ है; उसने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये हैं, सारे देशमे उसकी विजयका डका बज गया है, समीपमे उसको आज्ञाका पालन करनेके लिये अनुचर खड़े है, आसपास छड़ीदार खमा-खमा पुकार रहे हैं, एक रमणीय महलमे सुन्दर पलगपर उसने शयन किया है, देवागना जैसी स्त्रियाँ उसकी पाँवचप्पी कर रही हैं, एक ओरसे पखेसे मद-मद पवन दिया जा रहा है, ऐसे स्वप्नमे उसका आत्मा तन्मय हो गया। उस स्वप्नका भोग करते हुए उसके रोम उल्लसित हो गये। इतनेमे मेघ महाराज चढ आये, बिजली कौंधने लगी, सूर्यदेव बादलोंसे ढक गया, सर्वत्र अधकार छा गया, मूसलधार वर्षा होगी ऐसा मालूम हुआ और इतनेमे घनगर्जनाके साथ बिजलीका एक प्रबल कडाका हुआ। कडाकेकी आवाजसे भयभीत होकर वह बिचारा पामर भिखारी जाग उठा। शिक्षापाठ ४२ : भिखारीका खेद-भाग २ देखता है तो जिस जगह पानीका टूटा-फूटा घडा पडा था उसी जगह वह घडा पडा है, जहाँ फटी. गुदडी पड़ी थी वही वह पडी है। उसने जैसे मलिन और जाली झरोखेवाले कपडे पहन रखे थे वैसे वैसे वे वस्त्र शरीरपर विराजते है। न तिलभर बढा कि न जौभर घटा। न हैं वह देश कि न है वह नगरी, न है वह महल कि न है वह पलग, न है वे चमरछत्रधारी कि न हैं वे छड़ीदार, न हैं वे स्त्रियों
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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