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________________ です ६८ श्रीमद राजचन्द्र व्यासभव उपजीविकामे भी माया, कपट इत्यादि नही करते । स्त्री, पुत्र, माता, पिता, मुनि ओर गुरु इन सवका यथायोग्य सन्मान करते है । माँ-बापको धर्मका वोध देते हैं । यत्नासे घरकी स्वच्छता, रांधना, शयन इत्यादिको कराते है । स्वयं विचक्षणतासे आचरण करके स्त्रा-पुत्रको विनयी और धर्मी बनाते है । सारे कुटुम्बमे ऐक्यकी वृद्धि करते है । आये हुए अतिथिका यथायोग्य सन्मान करते हैं । याचकको क्षुधातुर नही रखते । सत्पुरुपोका समागम और उनका बोध धारण करते हैं । निरन्तर मर्यादासहित और सन्तोषयुक्त रहते है । यथाशक्ति घरमे शास्त्रसचय रखते है अल्प आरम्भसे व्यवहार चलाते हैं । ऐसा गृहस्थाश्रम उत्तम गतिका कारण होता है, ऐसा ज्ञानी कहते है । शिक्षापाठ १३ . जिनेश्वरको भक्ति - भाग १ जिज्ञासु - विचक्षण सत्य । कोई शकरकी, कोई ब्रह्माकी कोई विष्णुकी कोई सूर्यकी, कोइ afast, कोई भवानीकी, कोई पैगम्बरकी और कोई ईसाको भक्ति करता । ये भक्ति करके क्या आशा रखते होगे ? सत्य -- प्रिय जिज्ञासु । ये भाविक मोक्ष प्राप्त करनेकी परम आशासे इन देवोकी भक्ति करते है । जिज्ञासु - तब कहिये, क्या आपका ऐसा मत है कि ये इससे उत्तम गति प्राप्त करेंगे ? सत्य—ये उनकी भक्तिसे मोक्ष प्राप्त करेंगे, ऐसा मै नही कह सकता। जिनको ये परमेश्वर कहते है वे कुछ मोक्षको प्राप्त नही हुए है, तो फिर वे उपासकको मोक्ष कहाँसे देगे ? शकर इत्यादि कर्मक्षय नही कर सके हैं और दूषणसहित है, इसलिये वे पूजनीय नही हैं । जिज्ञासु वे दूषण कौन-कौनसे हैं ? यह कहिये । सत्य–“अज्ञान, काम, हास्य, रति, अति इत्यादि मिलकर अठारह' दूषणोमेसे एक दूषण हो तो भी वे अपूज्य है । एक समर्थ पडितने भी कहा है कि, 'मैं परमेश्वर हूँ' यो मिथ्या रीतिसे मनानेवाले पुरुष स्वय अपनेको ठगते है, क्योकि पासमे स्त्री होनेसे वे विषयी ठहरते है, शस्त्र धारण किये होनेसे वे द्वेषी ठहरते हैं । जप माला धारण करनेसे यह सूचित होता है कि उनका चित्त व्यग्र है । 'मेरी शरण में आ, मै सब पापोको हर लूंगा', यो कहनेवाले अभिमानी और नास्तिक ठहरते हैं । ऐसा है तो फिर वे दूसरेको कैसे तार सकते हैं ? और कितने ही अवतार लेनेके रूपमे अपनेका परमेश्वर कहलवाते हैं, तो 'ऐसी स्थितिमे यह सिद्ध होता है कि अमुक कर्मका प्रयोजन शेष है ।' जिज्ञासु - भाई । तब फिर पूज्य कौन और भक्ति किसको करनो कि जिससे आत्मा स्वशक्तिका प्रकाश करे ? द्वि० आ० पाठा० - १ 'अज्ञान, निद्रा, मिय्यात्व, राग, द्वेष, अविरति, भय, शोक, जुगुप्सा, दानातराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगातराय और उपभोगावराय, काम, हास्य, रति और अरति, ये '' अठारह २ ऐसी स्थितिमें यह सिद्ध होता है कि उनके लिये अमुक कर्मका भोगना बाकी है ।'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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