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________________ १७वाँ वर्ष ६७ पिता – देख पुत्र, इसपरसे मै अव तुझे एक उत्तम शिक्षा देता हूँ । जैसे संसारमे पड़ने के लिये व्यवहारनीति सीखनेका प्रयोजन है, वैसे ही परभवके लिये धर्मतत्त्व और धर्मनीतिमे प्रवेश करनेका प्रयोजन है । जैसे यह व्यवहारनीति सदाचारी शिक्षकसे उत्तम मिल सकती है, वैसे ही परभवमे श्रेयस्कर धर्मनीति उत्तम गुरुसे मिल सकती है । व्यवहारनीतिके शिक्षक तथा धर्मनीति के शिक्षकमे बहुत भेद है । बिल्लौरके टुकडे जैसा व्यवहार - शिक्षक है और अमूल्य कौस्तुभ जैसा आत्मधर्म शिक्षक है। * पुत्र — सिरछत्र | आपका कहना वाजिब है । धर्मके शिक्षककी संपूर्ण आवश्यकता है । आपने वारवार ससारके अनन्त दु खोके सबधमे मुझे कहा है । इससे पार पानेके लिये धर्म ही सहायभूत है । तब धर्म कैसे गुरुसे प्राप्त किया जाये तो वह श्रेयस्कर सिद्ध हो, यह मुझे कृपा करके कहिये । शिक्षापाठ ११ : सद्गुरुतत्त्व- - भाग २ पिता-पुत्र | गुरु तीन प्रकारके कहे जाते है- १. कोष्ठस्वरूप, २ कागजस्वरूप, ३ पत्थरस्वरूप। १ काष्ठस्वरूप गुरु सर्वोत्तम है, क्योकि ससाररूपी समुद्रको काष्ठस्वरूप गुरु ही तरते है, और तार सकते है । २ कागजस्वरूप गुरु मध्यम है । ये ससारसमुद्रको स्वय तर नही सकते, परंतु कुछ पुण्य उपार्जन कर सकते है । ये दूसरेको तार नही सकते । ३. पत्थरस्वरूप गुरु स्वयं डूबते है और परको भी डुबाते हैं । काष्ठस्वरूप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवानके शासनमे है । बाकी दो प्रकारके जो गुरु है वे कर्मावरण की वृद्धि करनेवाले है । हम सब उत्तम वस्तुको चाहते है, और उत्तमसे उत्तम वस्तु मिल सकती है। गुरु यदि उत्तम हो तो वे भवसमुद्रमे नाविकरूप, होकर सद्धर्मनावमे बैठाकर पार पहुँचा दें । तत्त्वज्ञानके भेद, स्व-स्वरूपभेद, लोकालोक विचार, ससार स्वरूप यह सब उत्तम गुरुके बिना मिल नही सकते । अव तुझे प्रश्न करनेकी इच्छा होगी कि ऐसे गुरुके लक्षण कौन-कौनसे है ? उन्हे मे कहता हूँ । जो जिनेश्वर भगवानकी कही हुई आज्ञाको जानें, उसे यथातथ्य पाले, और दूसरेको उसका उपदेश करें, कचनकामिनी के सर्वभावसे त्यागी हो, विशुद्ध आहार-जल लेते हो, बाईस प्रकार के परिषह सहन करते हो, क्षात, दात, निरारभी और जितेन्द्रिय हों, संद्धातिक ज्ञानमे निमँग्न रहते हो, मात्र धर्मके लिये शरीरका निर्वाह करते हों, निर्ग्रन्थ पथ पालते हुए कायर न हो, सलाई मात्र भी अदत्त न लेते हो, सर्वं प्रकारके रात्रिभोजनके त्यागी हो, समभावी हो और नीरागतासे' सत्योपदेशक हो । सक्षेपमे उन्हे काष्ठस्वरूप सद्गुरु जानना । पुत्र । गुरुके आचार एव ज्ञानके सबधमे आगममे बहुत विवेकपूर्वक वर्णन किया है। ज्योज्यो तू आगे विचार करना सीखता जायेगा, त्यो त्यो फिर मै तुझे उन विशेष तत्त्वोका उपदेश करता जाऊँगा । I पुत्र - पिताजी | आपने मुझे सक्षेप मे भी बहुत उपयोगी और कल्याणमय बताया है । मै निरन्तर इसका मनन करता रहूँगा । शिक्षापाठ १२ उत्तम गृहस्थ ससारमे रहते हुए भी उत्तम श्रावक गृहाश्रमसे आत्मसाधनको साध्य करते है, उनका गृहाश्रम भी सराहा जाता है । ये उत्तम पुरुष सामायिक, क्षमापना, चौविहार- प्रत्याख्यान इत्यादि यमनियमोका सेवन करते है । परपत्नीकी ओर माँ बहनकी दृष्टि रखते हैं । यथाशक्ति सत्पात्रमे दान देते हैं । शात, मधुर और कोमल भाषा बोलते है । सत्शास्त्रका मनन करते है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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