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________________ १७ वॉ वर्ष ४१ अश्रुपूर्ण आँखोंसे मेरे हृदयको सीचती और भिगोती थी। उसके अन्न-पानी देनेपर और नाना प्रकारके उबटन, चूवा आदि सुगंधी द्रव्य तथा अनेक प्रकारके फूल-चंदनादिके ज्ञात अज्ञात विलेपन किये जानेपर भी मैं उस यौवनवती स्त्रीको भोग नही सका। जो मेरे पाससे क्षणभर भी दूर नही रहती थी, अन्यत्र जाती नही थी, हे महाराजन् । ऐसी वह स्त्री भी मेरे रोगको दूर नही कर सको, यही मेरी अनाथता थी । यो किसीके प्रेमसे, किसीकी औषधिसे, किसोके विलापसे या किसीके परिश्रमसे वह रोग उपशात नही हुआ। मैंने उस समय पुन पुन असह्य वेदना भोगी। ___फिर मैं अनंत ससारसे खिन्न हो गया। यदि एक बार मैं इस महाविडवनामय वेदनासे मुक्त हो जाऊँ तो खती, दती और निरारभी प्रव्रज्याको धारण करूँ, यो चिन्तन करता हुआ मैं शयन कर गया। जब रात्रि व्यतीत हो गयी तब हे महाराजन् । मेरो उस वेदनाका क्षय हो गया, और मै नीरोग हो गया। मात, तात और स्वजन, बाधव आदिसे प्रभातमे पूछकर मैंने महाक्षमावान, इन्द्रियनिग्रही और आरभोपाधिसे रहित अनगारत्वको धारण किया। तत्पश्चात् मैं आत्मा परात्माका नाथ हुआ। सर्व प्रकारके जीवोका मैं नाथ हूँ।" अनाथी मुनिने इस प्रकार उस श्रेणिकराजाके मनपर अशरण भावनाको दृढ किया। अब उसे दूसरा अनुकूल उपदेश देते हैं "हे राजन् । यह अपना आत्मा ही दु खसे भरपूर वैतरणीको करनेवाला है। अपना आत्मा ही क्रूर शाल्मली वृक्षके दु.खको उत्पन्न करनेवाला है। अपना आत्मा ही मनोवाछित वस्तुरूपी दूध देनेवाली कामधेनु गायके सुखको उत्पन्न करनेवाला है। अपना आत्मा ही नदनवनकी भॉति आनदकारो है । अपना आत्मा ही कर्मका करनेवाला है। अपना आत्मा ही उस कर्मको दूर करनेवाला है। अपना आत्मा ही दु खोपार्जन करनेवाला है। अपना आत्मा ही सुखोपार्जन करनेवाला है। अपना आत्मा हो मित्र और अपना आत्मा ही वैरी है। अपना आत्मा ही निकृष्ट आचारमे स्थित और अपना आत्मा ही निर्मल आचारमे स्थित रहता है।" इस प्रकार तथा अन्य अनेक प्रकारसे उस अनाथी मुनिने श्रेणिक राजाको ससारकी अनाथता कह सुनायी। इससे श्रेणिकराजा अति सतुष्ट हुआ। वह अजलिबद्ध होकर यो बोला, "हे भगवन् । आपने मुझे भलीभॉति उपदेश दिया । आपने जैसी थी वैसी अनाथता कह सुनायी। हे महर्षि । आप सनाथ, आप सबाधव और आप सधर्म हैं, आप सर्व अनाथोके नाथ है । हे पवित्र सयति । मै आपसे क्षमा मांगता हूँ। ज्ञानरूपी आपकी शिक्षाको चाहता हूँ। धर्मध्यानमे विघ्न करनेवाले भोग भोगने सवधी, हे महाभाग्यवान् । मैंने आपको जो आमन्त्रण दिया तत्सबधो अपने अपराधकी नत-मस्तक होकर क्षमा माँगता हूँ।" इस प्रकार स्तुति करके राजपुरुष-केसरी परमानन्दको पाकर रोमाचसहित प्रदक्षिणा देकर सविनय वदन करके स्वस्थानको चला गया। प्रमाणशिक्षा--अहो भव्यो । महातपोधन, महामुनि, महाप्रज्ञावान, महायशस्वी, महानिग्रंथ और महाश्रुत अनाथी मुनिने मगधदेशके राजाको अपने बीते हुए चरित्रसे जो बोध दिया है वह सचमुच अशरणभावना सिद्ध करता है । महामुनि अनाथीके द्वारा सहन किये गये दु खोके तुल्य अथवा इससे अति. विशेष असह्य दु.ख अनंत आत्मा सामान्य दृष्टिसे भोगते हुए दिखायी देते हैं। तत्सबधी तुम किंचित् विचार करो । ससारमे छायी हुई अनन्त अशरणताका त्याग करके सत्य शरणरूप उत्तम तत्त्वज्ञान और परम सुशीलका सेवन करो, अन्तमे ये हो मुक्तिके कारणरूप हैं। जिस प्रकार संसारमे रहे हुए अनाथी अनाथ थे, उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञानको उत्तम प्राप्तिके बिना सदैव अनाथ ही हे। सनाथ होनेके लिये पुरुषार्थ करना यही श्रेय है । इति श्री 'भावनावोघ' ग्रन्यके प्रथम दर्शनके द्वितीय चित्रमे 'अशरणभावना' के उपदेशार्थ महानिग्रंथका चरित्र समाप्त हुआ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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