SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद राजचन्द्र अति दूर वह बैठा । फिर अजलिबद्ध होकर विनयसे उसने मुनिको पूछा - "हे आर्य | आप प्रशंसा करने योग्य तरुण हैं; भोगविलासके लिये आपकी वय अनुकूल है, ससारमे नाना प्रकारके सुख है; ऋतुऋतुके कामभोग, जलसंबंधी कामभोग तथा मनोहारिणी स्त्रियोके मुखवचनोका मधुर श्रवण होने पर भी इन सबका त्याग करके मुनित्वमे आप महान उद्यम कर रहे हैं, इसका क्या कारण ? यह मुझे अनुग्रहसे कहिये ।" ४० राजा के ऐसे वचन सुनकर मुनिने कहा, "मैं अनाथ था । हे महाराजन् । मुझे अपूर्व वस्तुको प्राप्त करानेवाला तथा योगक्षेमका करनेवाला, मुझपर अनुकपा लानेवाला, करुणा करके परम सुखका देनेवाला सुहृत्- मित्र लेशमात्र भी कोई न हुआ । यह कारण मेरी अनाथताका था ।” श्रेणिक, मुनिके भाषण से मुस्कराया । "अरे ! आप जैसे महान ऋद्धिमानको नाथ क्यो न हो ? लीजिये, कोई नाथ नही है तो मैं होता हूँ । हे भयत्राण | आप भोग भोगिये । हे संयति । मित्र । जातिसे दुर्लभ ऐसे अपने मनुष्य-भवको सफल कीजिये ।” अनाथीने कहा—“परन्तु अरे श्रेणिक, मगधदेशके राजन् । तू स्वयं अनाथ है तो मेरा नाथ क्या होगा ? निर्धन धनाढ्य कहाँसे बना सके ? अबुध बुद्धिदान कहाँसे दे सके ? अज्ञ विद्वत्ता कहाँसे दे सके ? वध्या सतान कहाँसे दे सके ? जब तू स्वय अनाथ है, तब मेरा नाथ कहाँसे होगा ?" मुनिके वचनोंसे राजा अति आकुल और अति विस्मित हुआ । जिन वचनोका कभी श्रवण नही हुआ, उन वचनोका यतिमुखसे श्रवण होनेसे वह शकाग्रस्त हुआ और बोला - " मैं अनेक प्रकार के अश्वोका भोगी हूँ, अनेक प्रकारके मदोन्मत्त हाथियोका धनी हूं, अनेक प्रकारकी सेना मेरे अधीन हैं, नगर, नाम, अत. पुर, तथा चतुष्पादकी मेरे कोई न्यूनता नही है, मनुष्यसम्बन्धी सभी प्रकारके भोग मुझे प्राप्त हैं, अनुचर मेरी आज्ञाका भलीभाँति पालन करते हैं, पाँचो प्रकारकी सपत्ति मेरे घरमे है, सर्व मनोवाछित वस्तुएँ मेरे पास रहती हैं ! ऐसा मैं जाज्वल्यमान होते हुए भी अनाथ कैसे हो सकता हूँ ? कही हे भगवन् । आप मृषा बोलते हो ।" मुनिने कहा - "हे राजन् । मेरे कहे हुए अर्थको उपपत्तिको तूने ठीक नही समझा । तू स्वयं अनाथ है, परन्तु तत्सम्बन्धी तेरी अज्ञता है। अब में जो कहता हूँ उसे अव्यग्र एव सावधान चित्तसे तू सुन, सुनकर फिर अपनी शंकाके सत्यासत्यका निर्णय करना । मैंने स्वय जिस अनाथतासे मुनित्वको अंगीकृत किया है उसे मैं प्रथम तुझे कहता हूँ कौशाम्बी नामकी अति प्राचीन और विविध प्रकारके भेदोको उत्पन्न करनेवाली एक सुन्दर नगरी थी । वहाँ ऋद्धिसे परिपूर्ण धनसचय नामके मेरे पिता रहते थे । प्रथम यौवनावस्थामे हे महाराजन् | मेरी आँखो मे अतुल्य एव उपमारहित वेदना उत्पन्न हुई । दुःखप्रद दाहज्वर सारे शरीरमे प्रवर्तमान हुआ । शस्त्र से भी अतिशय तीक्ष्ण वह रोग वैरोकी भाँति मुझपर कोपायमान हुआ । आँखोकी उस असह्य वेदनासे मेरा मस्तक दुखने लगा । इन्द्रके वज्र के प्रहार सरीखी, अन्यको भी रौद्र भय उत्पन्न करानेवाली उस अत्यत-परम दारुण वेदनासे में बहुत शोकार्त था । शारीरिक विद्यामे निपुण, अनन्य मंत्रमूलके सुज्ञ वैद्यराज मेरी उस वेदनाका नाश करनेके लिये आये, अनेक प्रकारके औषधोपचार किये परंतु वे वृथा गये । वे महानिपुण गिने जानेवाले वैद्यराज मुझे उस रोगसे मुक्त नही कर सके । हे राजन् । यही मेरी अनायता थी। मेरी आँखो की वेदनाको दूर करनेके लिये मेरे पिता सारा धन देने लगे, परन्तु उससे भी मेरी वह वेदना दूर नही हुई । हे राजन् ! यही मेरी अनायता थी । मेरी माता पुत्रके शोकसे अति दु खार्तं हुई, परन्तु वह भी मुझे उस रोगसे नही छुड़ा सकी, हे महाराजन् । यही मेरी अनायता थी । एक उदरसे उत्पन्न हुए मेरे ज्येष्ठ एव कनिष्ठ भाई भरसक प्रयत्न कर चुके परंतु मेरी वेदना दूर नही हुई, हे राजन् । यही मेरी अनायता थी । एक उदरसे उत्पन्न हुई मेरी ज्येष्ठा एवं कनिष्ठा भगिनियोंसे मेरा दुःख दूर नही हुआ । हे महाराजन् । यही मेरो अनायता थी । मेरी स्त्री जो पतिव्रता, मुझपर अनुरक्त और प्रेमवती थी, वह I 1 1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy