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________________ . र का ठहराया है। उनके ऐसा मानने का कारण यह है कि इनकी प्राकृत भाषा अश्वघोष और कालिदास की प्राकृत भाषाओं के मध्य में बीते काल की भाषा प्रतीत होती है। किन्तु जैसा कहीं और कहा जा चुका है प्राकृतों के आधार पर निकाला हुआ कोई सिद्धान्त सत्या सेद्धान्त नहीं हो सकता; कारण कि मास के नाटक दक्षिण भारत में और अश्वघोष के नाटक मध्य एशिया में मिले हैं। इन नाटकों के श्राभ्यन्तरिक साचय से जो बातें मालूम हो सकती हैं वे ये हैं : (ख) चारुदत्त में-यो याति दशा दरिद्रताम् (दो भाववाचक संशाएँ एक दूसरे के विशेषण के रूप में) मृच्छकटिक में-यो याति नरो...... (ग) चारुदत्त में --क्लिन्नखजूर पाण्डु (चन्द्रमा की उपमा के तौर पर उद्धा त पूर्वतया अकृत्रिम और मौलिक ) मृच्छकटिक में-कामिनी गण्डपाण्डु (परिष्कृत और रस सिद्धान्ता नुकूल ) । और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं। इनसे अनुमान होता है कि मृच्छकटिक चारुदन के बाद मे बना होगा, अन्यथा चारुदत्त के दुष्ट पाठो के लिए क्या उत्तर हो सकता है। नाटकीय घटना-उपयुक्त विचार का समर्थन नाटकीय घटना सम्बन्धी भेद से भी होता है। मृच्छकटिक का कथानक कहीं अधिक कौशलपूर्ण है। विशेष स्मरणीय बात यह है कि चारुदत्त नाटक के कई दोष मृच्छकटिक में सुधार दिए गए हैं । यथाचारुदत्त मे पष्ठी की सध्या में देर से चंद्रमा के निकलने का उल्लेख करके दो दिन बाद चंद्रमा को श्राधी रात में छिपा बताया गया है। इस भूल को मृच्छकटिक में सुधार दिया गया है। यह कौन विश्वास करेगा कि अभिनय के लिए सर्वेप करते हुए एक सही प्राकृतिक घटना को गलत बनाकर ले लिया गया होगा। अतः सिद्धान्त यही निकलता है कि मृच्छकटिक चारुदस का समुप
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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