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________________ २६४ संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः, मारभ्य विघ्न- विद्वता विरमन्ति मध्याः विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमगुणास्त्वमिवोद्वहन्ति । इस पद्य में 'मित्र' पुकार कर कह रहा है कि मैं वास्तव में मुद्राराक्षस नाटक का हूँ, भतृहरि के शासक का नहीं । (१११) वेणीसहार वीररस का दूसरा रूपक भट्ट नारायणकृत वेणीसंहार है। इसमें सात मङ्क हैं और महाभारत की एक सुप्रसिद्ध घटना इसका प्रतिपाद्य विषय है । द्रौपदी ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक दुःशासन कृत मेरे अपमान का बदला नहीं चुका लिया जायगा, तब तक मैं सिर का जूड़ा नहीं बाँधूंगी। भीम जोश में आ गया और कहने लगा यदि युधिष्ठिर ने दुर्योधन से सन्धि की तो मैं इसका साथ छोड़ दूँगा। श्रीकृष्ण ने पाडवों और धार्तराष्ट्रों के बीच सन्धि कराने का बड़ा प्रयत्न किया; परन्तु सन्धि न हो सकी । अन्त में महाभारत का जगप्रसिद् युद्ध हुआ । उसमें सब धार्तराष्ट्र मारे गए और भीम ने दुशासन के कधि में रंगे हुए अपने हाथों से द्रोपदी का जूड़ा बाँधा । ~ अभाव शैली -- भट्ट नारायण का चरित्र-चित्रण परम रमणीय है । मृच्छकटिक के पात्रों के समान इसके पार्थो का व्यक्तित्व भी विस्पष्ट है । परन्तु इसमें वनों के बाहुल्य के और महाभारतीय विवरणों की प्रचुरता के कारया पैदा हुआ। क्रिया वेग ( Action ) का खटकता है । शृङ्गार का प्रतिपादन नित्व हो गया है, शायद केवल इसलिए कि नाटककार ने दाखवत् नाट्यशास्त्र के विधि-विधानों का पालन किया हैं । मुद्राराक्षस के तुल्य इसमें भी स्फूर्ति और सजीवता है । भवभूति की भाँति भट्ट नारायण भी कभी कभी संस्कृत या प्राकृत गद्य में दीर्घ समासों का प्रयोग करने का तथा श्रर्थ की प्रतिध्वनि जसी शब्दध्वनि के द्वारा यथासम्भव प्रभाव पैदा करने का शौकीन है ।
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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