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________________ ૨૭; संस्कृत साहित्य का इतिहास और रमणीय कल्पना की बहुलता ऊपर वर्णित हो चुकी हैं। कुछ अन्य नीचे दी जाती हैं। (१) वर्णन पूर्ण गद्य का और मुक्तक ( Lyrical ) पथ का संयोग । साधारणतया रूपक की गति में वर्णन पूर्ण गद्य से वृद्धि हो जाती है, और ऐसा गद्य प्रायः देखने में आता भी है; परन्तु प्रभाव का अवश्य वर्धक अवसरानुसारी मुक्तक पथों का समावेश ही है। सच तो यह है कि रूपक को वास्तविक हृछता और सुन्दरता के प्रदाता ये पथ ही हैं। इनके बिना रूपक वार्तालाप का एक शुष्क प्रकरण रह जाता है । अकेले अभिज्ञानशाकुन्तल में ऐसे कोई दो सौ पद्य हैं। साधारणतथा रूपक का लगभग आधा शरीर तो इन पद्यों से ही निष्पन्न हो जाता है । ये पद्य विभिन्न छन्दों में होते हैं और कवि की काव्य-कुशयता का परिचय देते हैं । (२) संस्कृत कौर नाना प्राकृतों का मिश्रण-अपने-अपने सामा जिक पद के अनुसार भिन्न-भिन्न पात्र भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते हैं । साधारण नियम यह है कि -- नामक राजा, उच्च णी के पुरुष और तपस्विनी ये सब संस्कृत बोलते हैं। विदूषक ब्राह्मण होने पर भी प्राकृत खोलता है । कुलीन स्त्रियाँ, बालक और उत्तम वर्ग के सेवक सामान्यतः गद्य में शौरसेनी का और पद्य में महाराष्ट्री का प्रयोग करते हैं। राजHar के अन्य परिजन मागधी बोल सकते हैं। गोपाल, लुण्टक, से पालन होता है। इसी नियम के उल्लङ्घन से बचने के लिए भवभूति को अन्त में सीता और राम का पुनर्मिलन करना पड़ा है । अन्य कवियो की भी ऐसी ही दशा है । यद्यपि अन्त में दुःखमय घटना नहीं होती, तथापि करुण रस के और विप्रयुक्त प्रोमिन्युगलों के चित्र खींच खींच कर बड़े २ कवियों तक को रूपक के प्रारम्भ और मध्य में पर्याप्त दुःख का वर्णन करना पड़ता है । मृच्छकटिक और अभिज्ञानशकुन्तल में यह मध्य में है, और उत्तर - रामचरित में यह यूं तो सारे में है, किन्तु प्रारम्भ में विशेष है ।
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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