SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ सस्कृत साहित्य का इतिहास रस्थेश विभूतयोऽयुपहता प्रस्तं न कि केन वा ॥ उसके प्रिय छन्द शार्दूलविक्रीडित और शिखरिणी हैं। समय- यदि इन शतकों का रचयिता भन् हरि वाक्यपदीय का का मतृहरि ही न माना जाए तो इस भतृहरि के समय के विषय में कुछ मालूम नहीं । कुछ किंवदन्तियों के अनुसार वह प्रसिद्ध नृपति विक्रमादित्य का भाई था; परन्तु इतने से उसके कान का संशोधन करने में अधिक सहायता नहीं मिलती। कोई कोई अहते हैं भट्टिकाव्य का प्रणता भहि हो मत हरि है; परन्तु इस कथन का पोषक भी पर्याप्त प्रमाण मान्य नहीं है। (६०) अमरु ( ईसा की ७वी श. इस कवि के अमरु और अमरुक दोनों नाम मिलते हैं। इसके काव्य अमरु शतक के चार संस्करण मिलते हैं जिनमें १० से लेकर १११ ३ श्लोक है। इन में से ११ १२ सत्र संस्करणों में एक से पाए जाते है; परन्तु क्रम में बड़ा भेद पाया जाता है। सूक्ति-संग्रहों में इसके नाम से संग्रहीत श्लोकों का मेख किसी संस्करण ले नहीं होता है । अतः निश्चय के साथ श्रमजी अन्ध के पाठ का पता लगाना असम्भव है । इसके टीकाकार अजुननाथ (१२१५ ई.) ने जो पाठ माना है संभव है, वही बहुत कुछ प्रमाणित पाठ हो। टीकाएँ ---किंवदन्ती है कि शङ्कराचार्य ने काश्मीर के राजा के मृतशरीर को अपनी प्रास्मा के प्रवेश द्वारा जोवित करके उसके स्नवास १ जीवन को मृत्यु ने, उत्तम योवन को बुढ़ापे ने, सन्तोष को धन की तृष्णा ने, शान्ति-सुख को पूर्ण युवतियों के हाव-भावों ने गुणो को दोषपूर्ण लोगो ने. बनस्थलियों को सपों (या हाथियो) ने, राजाओं को दुष्टो ने, अभिभूत कर रखा है; सम्पदाओ को भी क्षणभङ्गुरता ने खराब कर दिया है। किस ने किसको नहीं निगल रक्खा है।
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy