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________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (३) यह बात निर्विवाद मानी जाती है कि इन्हीं राजाओं के संरक्षण में मथुरा में भारत की जातीच वास्तुकला और शिल्पकला (Sculpture ) ने परम उत्कर्ष प्राप्त किया था। आधुनिक अनुसन्धानों ने तो मैक्समूलरीय इस लिद्धान्न का अन्त 'हो कर दिया है । हम देख चुके हैं कि बौद्ध महाकवि अश्वघोष ईसा को प्रथम शताब्दी में ही हुश्रा और उस समय संस्कृत का इतना बोलबाला था कि उसे भी अपने धर्मोपदेश के अन्य संस्कृत मे ही लिखने पड़े। गिरनार और नासिक दोनों स्थानों के शिलालेख ईसा की दूसरी शताब्दी के हैं (जो अब उपलच हुए हैं ) वे मार्जित काव्य-शैली में लिखे हुए हैं । कई दृष्टियों से इनकी शैली की तुलना श्रेण्य संस्कृत के कथा-काव्यों की तथा गद्यकाव्यो की शैली के साथ की जा सकती है। ये लेख निश्चय रूप से सिद्ध करते हैं कि तत्कालीन राजाओं के दर्वारों में संस्कृत काव्यों की रचना खूब होती होगी। सच तो यह है कि ईला की दूसरी शताब्दी के पीछे भाने वाली शताब्दियों में भी संस्कृत काव्य के निर्माण का कार्य निरन्तर आरी रहा। हरिषेण लिखित ३५० ई. बाली समुद्रगुल की प्रशस्ति से पता चलता है कि वह कवियों का बडा आदर करने वाला और स्वयं कवि था। उसकी प्रशस्ति में कहीं कहीं बैदी शैली है (जैसी कालिदास और दण्डी के अन्धों में है) और कहीं कहीं लम्बे लम्बे समालों का भय है ( एक समाल तो ऐसा है जिसमें एक सौ बीस से भी अधिक वर्ण हैं)। इसके अतिरिक गुप्तकाल के अनेक शिलालेख मिले हैं जो काव्य शैली में लिखे हैं। शिलालेखों के इन प्रमाण से पूर्णतया प्रमाणित होता है कि ईसा की छठी शताब्दी तक संस्कृत कभी नहीं सोई । ईसा की पहजी और दूसरी शताब्दी में इसके सोने को शङ्का का अवसर तो और भी कम रह जाता है। प्रो० मैक्समूबर का मुख्य विषय था कि ईसा की छठी शताब्दी का मपाल संस्कृत कान्य के इतिहास में सुवर्ण युग था। मैक्समूलर
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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