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वामन की कृत परिभाषा भामह से प्रभावित है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार उपमान तथा उपमेय मे भेद होने पर भी जहाँ दोनों के साधर्म्य का प्रतिपादन किया जाए वहाँ उपमा अलकार होता है 12 लक्षण मे भेद पद का उल्लेख अनन्वय अलंकार की व्यावृत्ति के लिए किया गया है क्योंकि अनन्वय मे उपमेय तथा उपमान दोनों एक ही होते हैं किन्तु उपमा मे इन दोनों का भिन्न होना नितान्त आवश्यक है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ उपमान के द्वारा उपमेय का साम्य स्थापित किया जाए वहाँ उपमा अलकार होता है । 3 इन्होंने उपमान को लोक प्रसिद्ध होना आवश्यक बतलाया है । प्रसिद्ध उपमान के अभाव मे इन्हे उपमा अलकार अभीष्ट नहीं है । यदि कारिका मे 'स्वत सिद्धेन' का उल्लेख न होता तो उत्प्रेक्षा अलकार मे भी इस लक्षण की प्रसक्ति हो जाती क्योंकि उत्प्रेक्षा अलंकार मे उपमान का प्रसिद्ध होना आवश्यक नहीं होता इससे स्पष्ट हो जाता है कि उपमान के स्वत सिद्ध होने पर उपमा तथा स्वत असिद्ध या अप्रसिद्ध होने पर उत्प्रेक्षा अलकार होता है । इसके अतिरिक्त इन्होंने उपमान को स्वत भिन्न भी बताया है जिससे अनन्वय अलंकार का निराकरण हो जाता है । उपमान के स्वत भिन्न होने का उल्लेख तो आचार्य मम्मट ने भी किया है किन्तु उनकी परिभाषा मे स्वत सिद्धेन का उल्लेख नहीं है । निश्चित ही इस पद का उल्लेख करके आचार्य अजितसेन ने एक नया विचार किया । कारिका में प्रयुक्त धर्मत पद के निबन्धन से श्लेषालकार की निवृत्ति हो जाती है क्योंकि श्लेष अलकार मे भी शब्द साम्य रहता है अत उसे भी उपमा अलकार स्वीकार किया जा सकता था किन्तु धर्मत पद के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म - साम्य होने पर ही उपमा सम्भव है शब्द साम्य मे नहीं ।
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'धर्मत इत्यनेन श्लेषनिरास । श्लेषालकारे शब्द साम्यमात्रस्यागीकारात् । न गुण क्रियासाम्यस्य ।'
उपमानेनोपमेयस्य गुणलेशत साम्यमुपमा ।
साधर्म्यमुपमाभेदे ।
वर्ण्यस्य साम्यमन्येन स्वत सिद्धेन धर्मत । भिन्नेन सूर्य भीष्टेन वाच्य यत्रोपमैकदा ।।
अ०चि० पृ०
का०प्र०
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काव्या० सू0 4, 2, 1
10/87
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अचि० 4 / 18 एवं वृत्ति