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________________ इनके पूर्ववर्ती आचार्य दण्डी ने सोलह प्रकार की प्रहेलिकाओं का उल्लेख किया था जो निम्नलिखित हैं 10 समागता, 20 वचिता, ( 3 ) व्युत्क्राता, (4) प्रमुषिता, ( 5 ) म्मानरूपा, 16 ) परुषा, ( 7 ) मख्याता, (8) परिकल्पिता (9) नामातरिता, [100 निभृतार्था । । समानशब्दा, 0120 सम्मूढा, 0 1 30 परिहारिका, (14) एकच्छन्ना, ( 15 ) उभयच्छन्ना तथा 0 16 0 संकीर्णा । इसके अतिरिक्त दण्डी ने चौदह दुष्ट प्रहेलिकाओं का भी निर्देश किया है । अजितसेन के पूर्ववर्ती आचार्य भोज अन्त प्रश्न और बहि प्रश्न तथा बहिरन्त प्रश्न के आधार पर प्रहेलिकाओं का विभाजन किया था 12 जबकि आचार्य सेन अन्त एव बहिप्रश्न के आधार पर ही प्रहेलिकाओं के भेद की व्यवस्था की है । अजितसेन के अनुसार जहाँ विवक्षित अर्थ को अत्यन्त गुप्त रखा जाय, वहाँ अर्थ प्रहेलिका होती है । उदाहरण नाभेरभिमतो राज्ञस्त्वयिरक्तो न कामुक । अ०चि० 2/126 उक्त श्लोक को प्रश्न प्रहेलिका के रूप में स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि आचार्य अजितसेन ने महाराजा नाभिराज को लक्ष्य करके उक्त श्लोक को उद्धृत किया है जिसमे यह प्रश्न भी किया है कि वह कौन पदार्थ है जो आप में रक्त आसक्त है और आसक्त होने पर भी महाराज नाभिराज को अत्यन्त प्रिय है, कामुक विषयी भी नहीं है, नीच भी नहीं है और कान्ति से सदा तेजस्वी रहता है । इसका उत्तर 'अधर' है जो 'उक्त श्लोक के सम्यक् अनुशीलन से किञ्चित् कठिनाई के साथ व्याप्त हो जाता है' क्योंकि अधर नीचे का ओष्ठ ही है वह रक्त वर्ण का होता भी है और महाराजनाभिराज को प्रिय भी है कामुक भी नहीं है शरीर के उच्च भाग पर रहने के कारण नीच भी नहीं है और कान्ति से सदा तेजस्वी भी रहता है 3 2 - 3 न कुतोऽप्यधर कान्त्यायः सदौजोधर. सक II का0द0 3/98-124 ०क०भ० - 2/137 अधर । मदौजोधर । तत तेजावर सामर्थ्याल्लभ्योऽधर - अर्थ प्रहेलिका । अचि0, 2 / 126 की वृत्ति ।
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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