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________________ प्रस्तुत प्रश्न लिए जरूर एकताका आधार वहाँ है जो उसके विविध अंगों (प्रान्तों) को एकत्रित थामे हुए है। __सवाल अब यह रह जाता है कि वैसी एक-सूत्रता जब दीखती नहीं, पहचानमें और पकड़ में नहीं आती, तो उसको किस भाँति हिसाबमें लिया जाय ? वह है, ऐसा ही क्यों कर माने ? तो, इसका जवाब होगा कि, अगर बुद्धि उसको नहीं पाती तो श्रद्धासे उसको माने । नहीं माननेसे तो काम नहीं चलेगा। ___ मान लीजिए कि साँपका फन उसी साँपकी पूछको अपना नहीं समझता । वह अपने साँप-पनको नहीं जानता। फन बस अपनेको फन जानता है जिसमें खा जानेकी शक्ति है, जिसमें ज़हर है और तेजी है । और पूँछको वह निष्क्रिय जड़की भाँति अपनेसे भिन्न देखता है और पूछको हिलती हुई देखकर वह उसे कोई अपनेसे अलग खाद्य जीव समझ लेता है । अगर हम कल्पना करें कि फनने गूछको खाना शुरू कर दिया, तो साँपका परिणाम क्या होगा ?--स्पष्ट है कि परिणाम कुछ नहीं होगा। ___ यानी, कोई एक अंग दूसरेसे अपना इतना विरोध मान ले कि दूसरेके नाशमें अपना जीवन समझे, तो इसका परिणाम शून्य होगा । अर्थात् यह कोरा तर्क है, इसमें सम्भवनीयता नहीं है । साँप अपनी पूँछको निगलता देखा नहीं गया है । हाँ, उसके फन और पूंछको आपसमें चोट लेते-देते अवश्य देखा गया है। इसलिए, किन्हीं दोमें ऐकान्तिक विरोध असत्य है । जो ऐसा विरोध ठानते या ठानना बिचारते हैं, वे भ्रम पालते और नाश बुलाते हैं। लेकिन, साथ ही आपका यह प्रश्न मालूम होता है कि क्या राष्ट्रके प्रति ही व्यक्तिकी वफादारी है ? राष्ट्रके बाहर क्या किसी औरके प्रति लगाव नहीं हो सकता ? मैं हिन्दुस्तानमें रहता हूँ । हिन्दुस्तानका, जो एक राष्ट्र है, मैं अंग हूँ। हिन्दुस्तानी होनेके साथ मैं अमुक धर्मावलंबी भी हूँ। और मान लीजिए, वनस्पति-शास्त्रम रस लेता हूँ। अब कल्पना कीजिए कि उसी हिन्दुस्तानका एक और व्यक्ति अंग है, जो उस धर्मसे बिलकुल सहानुभूति नहीं रखता और वनस्पतियोंमें जिसे कोई रस नहीं है। उसके मुकाबलेमें अमरीकाका कोई आदमी उक्त धर्ममें प्रीत रखता है और वनस्पतियोंके संबंधों तो बहुत ही अनुसंधानप्रिय है ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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