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________________ देशका अन्तरंग जीवन संभव है । उनका विरोध अगर आपसकी एकताकी संभावनाको बिल्कुल तोड़ बैठे, तो वही मेरी मौत हो । इस तरह प्रत्येक इकाईको, प्रत्येक सत्ताको, किन्हीं दो ( अथवा अनेक ) के मध्य आकर्षण अथवा अपकर्षणकी परिभाषामें ही कहा जा सकता है । अर्थात् , कोई इकाई विविधतासे खाली नहीं है । स्पंदन, जीवन, चैतन्य, गति,-ये सब शब्द दो अस्तित्वकी शर्तके बोधक हैं। वे दो हैं, इसका मतलब यह है कि उनमें किंचित् विरोध है ही। इसी तरह राष्ट्र वह नहीं है जिसमें एक ही जाति, एक ही प्रान्त, एक ही दल, एक ही श्रेणी हो । उसमें विविध श्रेणियाँ, विविध जातियाँ, कई प्रान्त, कई हित (Intrests ) अनिवार्य हैं । जो इन कइयोको अपनी भावनासे एकतामें नहीं पिरो देती बह राष्ट्रीयता भी नहीं है। Domocracy (जन-तंत्र) का भी यही अर्थ है । उसके माने हैं 'सबका राज्य' । उस शब्दके अर्थके साथ व्याभिचार करके स्थूल वास्तविकतामे उसे एक पार्टीका राज्य, या अराज्य, बनाया जा सकता है । पर 'राष्ट्र के असली माने यही हैं कि जो अपने भीतरक विरोधी दीखनेवाले अंगोमें अपने प्राणों की एकता पहुँचा। इस प्रकारकी एकता जो दे सकता है, वह देश स्वस्थ और बलिष्ठ है । और जो नहीं दे सकता, वह रुग्ण है और बिखरकर लुप्त हो जानेवाला है। प्रश्न-यह तो ठीक है कि विविध प्रान्त, विविध जातियां आदि छोटी छोटी इकाइयाँ मिलकर एक राष्ट्र जैसी बड़ी इकाईके भीतर एक हो सकते हैं, और इसके लिए किसी राष्ट्रीय सामान्यता (National Affinity ) और उसमें निहित हितैक्य (unity of interest.) का होना जरूरी है। किन्तु, यदि राष्ट्र किसी ऐसे दो भागोंमें बँटा है जिनमें ऐसी कोई सामान्यता (Allinity ) अथवा हितकी अभिन्नता (unity of interest ) नहीं हो सकती तो वहाँ राष्ट्र-भावना कैसे विवक्षित हो सकती है ? उत्तर-अगर आधारभूत वैसी कोई एकसूत्रता नहीं, तो राष्ट्रकी सत्ताका टिकना सचमुच संभव नहीं है । लेकिन, मान लीजिए कि राष्ट्र आज है, कल चाहे वह नहीं भी रहनेवाला हो, तो भी यह मानना ही पड़ेगा कि आज तक
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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