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________________ २३६ प्रस्तुत प्रश्न उत्तर-जीनेका अंत मौत है । अगर ध्येय भी मौत होती तो इसी घड़ी मर जाना क्यो न बेहतर समझा जाता ? इसलिए ध्येय मौत तो कभी नहीं है; अन्त बेशक मौत है। प्रश्न-मौत नहीं, तो फिर ध्येय क्या है ? उत्तर-ध्येय है मुक्ति । प्रश्न-मुक्ति क्या? उत्तर-व्यापक या व्याप्त सत्ता । प्रश्न-खुलासा समझाइए। उत्तर-अब मैं व्याक्त बनकर रहता हूँ। उससे अतीत बनकर रहना जब मेरे लिए संभव हो जायगा तब वह स्थिति मुझ व्यक्ति के लिए मुक्ति होगी। प्रश्न-यानी मुक्ति हुई व्यक्तिका व्यक्तित्व-नाश? उत्तर-हाँ। प्रश्न-तो यह एक तरहकी मौत हुई । और मौत ही नहीं खुदकुशी-सी जान-बूझकर भी हुई। यानी मुक्ति और मृत्यु एक हो गये? उत्तर-हाँ, एक लिहाज़से मुक्ति व्यक्तिकी मौत है, क्योंकि वह क्षुद्र व्यक्तित्वका विराट् व्यक्तित्वमें मिट जाना है । ऐसी मौत होना बहुत अच्छा है । प्रश्न-अजी जव व्यक्ति ही नहीं वचा तव विराट् व्यक्तित्वकी अनुभूति क्या और बहुत अच्छा' क्या? विराटकी अनुभूति ससीमकी परिभाषामें ही तो होगी? उत्तर-यह पहलेसे बताने की बात थोड़े ही है । गुड़ का स्वाद तो असलमें चखनेसे ही मालूम होगा । यो बातोंमें और सब कुछ है, असली स्वाद नहीं है। प्रश्न-पर ऐसा गुड़का स्वाद क्या जिसकी जुवानके नाशपर ही पता चलनेकी संभावना है ? __ उत्तर-वह स्वाद एकदम हमसे अपरिचित भी नहीं है । प्रेममें हमें स्वाद आता है । पर प्रेम अपनेको दे डालने की आतुरताके सिवा क्या है ? प्र०-यानी खोना पाना है ? मौत जिंदगी है ? है 'नहीं' है ?-- इस सबका क्या अर्थ होता है । क्या Contrarlic-tion की Value (=विरोधका मूल्य) है ही नहीं? उ०-मैं नहीं जानता Contradiction की Talue से ( ='विरोधक
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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