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________________ औद्योगिक विकास : शासन यंत्र २०३ समझता हूँ। क्या यह सच नहीं है कि व्यावसायिक केंद्रीकरणके अभावमें, संस्कृतिकी भी आज जो केंद्रीयताकी ओर प्रवृत्ति है वह भी जाती रहेगी? उत्तर-मैं वैसा नहीं समझता । बल्कि उससे उल्टा समझता हूँ। बड़े उद्योगोंके कारण जो एकत्रता आई है, वह बिल्कुल ऊपरी है । एक मिलमें बीस हज़ार आदमी काम करते हैं । क्या हम यह समझें कि उन बीस हज़ारमें आपसमें कोई कौटुंबिक भावकी एकता है ? वैसा नहीं है । बल्कि उनमें परस्पर मत्सर- ईर्ष्या और नोच-खींचके भाव रहते हैं। और सच्चा प्रेम दो स्वाधीन व्यक्तियों के बीच में ही संभव है । जो एक दूसरेके अधीन हैं, उनमें सच्चा सौहार्द नहीं हो पाता । इस तरन् यदि हार्दिक सद्भाव यानी सांस्कृतिक एकताको संभव बनाना है तो वह आर्थिक स्वावलंबनके आधारपर ही संभव बनेगी, - आर्थिक स्वावलंबन यानी Eonomic Decentralization | ___ मन एक चाहिए, तन तो जुदा जुदा ही रहेंगे । जहाँ देह-सम्पर्ककी कामुकता है वहाँ मनके एक्यकी संभावना स्थायी नहीं होती । तनकी पवित्रता तनको पर-स्पर्श-हीन रखनेमें है । मनकी भलाई दूसरों के मनोंके साथ उसको मिला देनेमें है। प्रश्न -आपने कहा कि तन जुदा जुदा हों, मन एक चाहिए। लेकिन क्या आर्थिक स्वावलंबनका एक खास परिणाम यह भी न होगा कि हर आदमीके विचार अपने तक ही सीमित रहंगे? बड़े बड़े उद्योगोंमें (large scale inclustri: में ) देशके भिन्न भिन्न भागोंमें जो सम्पर्क रहता है और उससे जो सर्वांगीण उन्नति होती है, वह न रहकर लोगोंकी दृष्टि कूपमंडूककी तरह हो जायगी। फिर मन एक कहाँ रहेंगे? केंद्रका नाश चाहनेमें ( = De: centrali/at on में ) पार्थक्य भावका ( Seputatist. ''en lency का ) बीज भी तो है। क्या हम उसमें भीषण हानि न देखें ? उत्तर --बेशक यह खतरा है । हमको उससे आगाह रहना चाहिए । हिन्दुस्तानके इतिहासमें वह ख़तरा और वह हानि काफी साफ नजर आती है । आत्म-शुद्धि और बाह्य अपरिग्रहके सिद्धांतोंका इस प्रकार आचरण किया गया कि व्यक्ति अपने में ही गड़ गया और असामाजिक होने लगा।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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