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________________ १८२ प्रस्तुत प्रश्न अनेकताके कोई भी सत्ता, कोई भी व्यापार, संभव नहीं है । इसलिए प्रश्न बाहरी स्थूल विषमताको मिटानेका नहीं रह जाता । अथवा यदि वह प्रश्न है भी तो इसलिए है कि वह अंतरंग विषमताका प्रकट फल है और फिर उसीको उत्तेजित करता है। अब सवाल है कि अन्तरंग विषमता क्या है ? वह विषमता है हमारे मनके विकार । वह विषमता कैसे दूर हो ? वह दूर ऐसे हो कि मैं अपने विकारोंको यथाशक्य अपने काबूमें लाऊँ और दूसरोंको उसीके लिए प्रेरित करूँ । व्यक्तिगत रूपमें सच्ची बुद्धिसे आरंभ किया गया ऐसा प्रयत्न अकेला नहीं रह सकता है । वह गुणानुगुणित होता जायगा और उसका सामाजिक स्वरूप और सामाजिक प्रभाव हुए बिना न रहेगा। दुनियाको सुधारनेका मार्ग अपनेको सुधारनेके अलावा और नहीं है ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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