________________
प्रास्ताविक
[७
तीसरे अध्याय मॅ सुखदुःख आदि का विवेचन कुछ और विस्तार में हुआ है । भेदः प्रभेद बढ़ाकर बताये गये हैं। उन्हें समझने के लिये नक्शे दिये गये हैं। यह अध्याय भी प्रथमावृत्ति से करीब पौत्रे दोगुणा होगया है ।
चौथे अध्याय में भी कुछ विवेचन बढ़ा है, कुछ दोहे वगैरह दिये गये हैं। प्रथमावृति की करीब सवाया होगया है ।
पांचवां मध्याय भी करीब सवाया होगया है । इसमें धर्म समभाव का प्रकरण काफी विक हुआ है, इसमें ऐतिहासिक दृष्टि से धर्मसंस्थाओं का विकास आदि का अच्छा विवेचन हुआ है, अन्य भी कुछ संशोधित हुए हैं।
छठे अध्याय की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जीविका जीवन और यशोatar नाम के शे प्रकरण बिलकुल नये जोड़े गये हैं । बाकी इधर उधर कहीं छू दिया गया है, विशेष संशोधन नहीं हुआ |
इस विवेचन से इतना पता तो खरा ही सकता है कि दूसरी मावृत्ति काफी मौलिकता और सामग्री रखती है। वन की दृष्टि में कहीं कोई अन्तर नहीं हुआ है। न दोनों आवृत्तियों मैं कोई विरोध है । फिर पहिली धावृति की अपेक्षा इस मावृत्ति की प्रामाणिकता अधिक है। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि सत्यसमाज के अनुसार जैसे जन्य वस्तुएँ विकासशील हैं उसी तरह
मी विकासशील है।
जो नये पाठक इसे पढ़ेंगे के वो पढ़ेंगे ही, पर प्रथमावृत्ति पढ़नेवालों को भी यह आवृति
पद लेना चाहिये ।
२१ का १६११ ई. सं.
1
३००-१-५१
14
सत्यभक्त सत्याश्रम वर्षा