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________________ प्यास बुझाने के लिये और सर्व वोका मर्म समझने के लिये उन्हे जगत्पिता और जगन्माता के रूप मे देखने की जरूरत है । तभी हम दुनिया के समस्त तीर्थकर पैगम्बर या अवतारो म भ्रातृत्व दिखला सकते है । ईश्वरदूत ईश्वरपुत्र आदि शब्दो का मर्म समझ सकते हैं। - हम मनुष्य सत्य और अहिंसा को मनुष्याकार में जितना समझ सकते है उतना अन्य किसी आकार में नही । किस भावका शरीर पर क्या प्रभाव पडता है यह बात जितनी हम मनुष्य-शरीर मे स्पष्ट देख सकते हैं उतनी दूसरे गरीरों या आकृतियों में नहीं। हम अपने माता पिता की कल्पना जैसी मनुष्य शरीर मे कर सकते है वैसी अन्य शरीर मे नहीं । जैसे अमूर्त ज्ञान को मूर्त अक्षरो द्वारा समझना पडता है उसी प्रकार अमूर्त सत्य अहिंसा को मूर्त रूपमे समझने की कोशिश की गई है । राम, कृष्ण, महावीर आदि महात्मा पुरुपों का गुणगान उन्हें ईश्वर मानकर नहीं किया गया है किन्तु व्यापक दृष्टि से जगत की संवा करनेवाले असाधार। महापुरुप के रूपमे किया गया है । उनके त्याग तप जगत्सेवा आदि पर ही जोर दिया गया है और उनके जीवन के साथ जो अवैज्ञानिक-अविश्वसनीय-घटनाएँ चिपका दी गई हैं वे अलग कर दी गई है । जो गुण उनके जीवन से सीखे जा सकते है उन्हीं का वर्णन किया गया है । साथ ही समभाव का इतना ध्यान रक्खा गया है कि एक की स्तुति दूसरे की निंदा करने वाली न हो। ऐसी प्रार्थनाएँ आस्तिक और नास्तिक दोनो के लिये हितकारी है। बहुत से लोग प्रार्थनाओं के महत्व को ठीक ठीक नहीं समझते । कुछ लोग तो सारी सिद्धियों उसी में देखते है और कुछ
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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