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________________ ४४] आत्म कथा । उन्नति की जितनी चिन्ता या प्रसन्नता हमें होती है उतनी मित्र या भाई की उन्नति की नहीं । शिष्य यदि गुरु से बड़ा भी हो जाय किन्तु बड़ा होने पर भी जब वह मिलने पर सिर झुकाये तब गुरु यह क्यों न चाहेगा कि मेरा शिष्य महान से महान हो जिससे मेरी महत्ता बढ़े। वेटे के समान शिष्य की महत्ता गुरु के हृदय में ईया नहीं पैदा करेगी किन्तु मित्र के समान शिष्य की पैदा करेगी । साधारणतः भाई भाई में ईर्ष्या हो जाती है वाप बेटे में नहीं । मानव-हृदय की इसी कमजोरी को ध्यान में रखकर गुरु शिष्य को पिता पुत्र के समान मानने की नीति बनाई गई थी। दूसरी बात यह है कि जब गुरु मित्र रह जाता है तव गुरु का संकोच लज्जा आदि नष्ट हो जाते हैं इसलिये जवानी की उदंडताएँ तथा और भी वुराइयाँ निरकुंश हो जाती हैं । गुरु के अस्तित्व का उनपर प्रभाव नहीं पड़ता ऐसा जीवन दूसरों को दुखी करता है और अपने को दुखी करता है। मैं मित्र रूप में शिष्य और पुत्र रूप में शिष्य और मित्र रूपमें गुरु और पिता रूपमें गुरु, इन चारों हालतों में से गुजरा हूं और उस पर से इसी निर्णय पर आया हूं कि कुछ अपवादों को छोड़कर गुरु शिष्य का पिता पुत्र के समान होना ही ठीक है। हाँ, कभी कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जहाँ मित्र को भी अपने पास पढने का अवसर आ जाता है एक विषय का विद्वान दूसरे विषय के विद्वान के पास कुछ सीखना • चाहता है तो ऐसी अवस्था में मित्रत्व के सम्बन्ध का निर्वाह करना चाहिये ।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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