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________________ [४३ • पाठशाला का जीवन इतना सम्पर्क रहते हुए भी विनय का पूरा पालन होता था । कुर्सियाँ या बेंचे तो वहां थीं नहीं, मामूली डोरिये थे फिर भी अध्यापक के पास आने पर हम खड़े हो जाते थे । और अपने कमरे का यह नियम था कि जबतक गुरुजन कमरे में रहते हम उनके सामने खडे रहते, दिन में सबसे पहिले जब कोई अध्यापक मिलता तो उसके चरण छूते, भले ही वह बाजार क्यों न हो। अध्यापकों की आज्ञा न मानने की तो हम लोग कल्पना ही नहीं कर सकते थे । उनके पुकारने पर सब काम छोड़कर तुरन्त हाजिर हो जाते थे। किसी भी तरह की छोटी बड़ी सेवा करने में हमें शर्म न मालूम होती थी। - इस विनय और सेवा के दो परिणाम मालूम हुए । एक ते गुरु शिष्य का घनिष्ठ प्रेम, जिससे गुरु के हृदय में शिष्य की उन्नति की प्रबल आकांक्षा बनी रहती थी। दूसरा अहंकार या उदंडता का दमन, इससे अनेक अनर्थों पर अंकुश रहता था। - कुछ लोगों का यह विचार है कि गुरुशिष्य का सम्बन्ध दो मित्रों सरीखा होना चाहिये । पर मेरा तो यह अनुभव है कि पिता पुत्र के समान सम्बन्ध अधिक लाभप्रद है । प्रेम तो दोनों हालतों में है पर मित्रता के नाते में ईर्ष्या जल्दी पैदा होजाती है, पद पद पर अधिकार का विचार और अपमान का अनुभव होने लगता है ऐसी हालत में गुरु उतना ही देता है जितना परीक्षा-फल के लिये अनिवार्य हो । देने के विषयमें उसकी दिली उमंग नष्ट हो जाती है। मानव-हृदय की यह कमजोरी है जोकि पूर्ण योगी होनेपर ही नष्ट हो सकती है कि वह प्रतिद्वन्दिता सहन नहीं कर सकता । मित्र या भाई से भी हम प्रेम करते हैं और बेटे से भी। पर वेटे की
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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