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________________ दाम्पत्य के अनुभव [ २४९ बहुत सहन करना पड़े तो सहन करो, फिर भी प्रेमपूर्वक व्यवहार करो । परिश्रम से जी मत चुराओ । सम्भव है तुमने शिक्षण में काफी उन्नति की हो; परन्तु शिक्षणका फल आलस्य नहीं है, अकर्मण्यता नहीं है । शारीरिक श्रम से अपमान नहीं होता, खासकर घर के कामों में तो गौरव ही हैं। साथ ही स्वास्थ्यरक्षा होती है वह अलग | निश्छल प्रेम और कर्तव्यपरायणता से तुम रूखी रोटियों में अमृत का स्वाद भर सकती हो- नरक को भी स्वर्ग बना सकती हो । दाम्पत्य-जीवन में कलह का होना स्वाभाविकसा ही है, और कभी कभी तो वह भीषण रूप धारण कर लेता है । इसका कष्ट मुझे काफी भोगना पढ़ा. परन्तु इसका मुख्य कारण मेरी अनुभव शून्यता के साथ पुरुषत्व का मद था । मेरे ऊपर संस्कार ही कुछ ऐसे पट गये थे। दूसरे युवकों के संस्कार कामुकता के कारण धुल जाते हैं, परन्तु मेरा अहंकार ऐसा प्रबल था कि कामुकता पर विजय गाकर बैठा रहता था । इससे मुझे और मेरी पत्नी को बड़ी परेशानी उठाना पड़ती थी। मुझमें एक न्यायाधीश सरीखी कठोरता या बेदर्दीपन था । इससे कौटुम्बिक झगड़ों में में उसके साथ न्याय करता था, परन्तु जहां दया सहानुभूति आदिको आवश्यकता होती भी, वहां भी यह न्यायाधीश की कठोरता रहती थी | यही मेरी सूता थी, जिसका फल बहुत कुछ भोगना पड़ा | देवर कभी कभी भावना भयंकर होता कि मेरे मन का रिवाज होता तो की सुक्न होने से होजाय तोकी मन विचार उठने लगते कि तय स्वतन्त्र हो जाना | परन्तु यही कहता कि किसी न
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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