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________________ १६ ] आत्म कथा रही, मैंने बालक होने पर भी उसकी सेवा में काफ़ी भाग लिया परन्तु वह न वची । एक तरह से मैं अकेला रह गया । हिन्दी स्कूल के कोई विशेष संस्मरण नहीं हैं । मास्टरों की अयोग्यता और क्रूरता के अवश्य कुछ संस्मरण हैं, बेतों की मार सब को भोगना पड़ती थी । रटने के सिवाय पढ़ने का और कोई साधन न था। बुद्धि पर कोई ज़ोर नहीं दिया जाता था। एक बार मेरी क्लास के एक - मास्टर ने पूछा हरिण किसे कहते हैं। सभी विद्यार्थी हरिण जानते थे, प्रायः सभीने हरिण देखा था इसलिये सब ने अपने अपने शब्दों में हरिण का चित्र खींचा पर मास्टर को न जचा । जब मेरा नम्बर आया तब मैंने कहाहरिण मगको कहते हैं । जैन तीर्थंकरों के चिह्नों में यह शान्तिनाथ । का चिन्ह माना जाता है वहीं से मैंने यह शब्द सीखा था । मेरी इस पंडिताई से मास्टर बहुत खुश हुए और मेरा नम्बर ऊँचा हो गया । फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि हरिण को हम सब समझते थे पर मग को शायद कोई नहीं समझता था। स्कूलों में एक आचरण-बुक रहती है । अब मुझे मालूम नहीं परन्तु मेरे समय में कम से कम मेरे स्कूल के मास्टर इसका अर्थ नहीं समझते थे। पढ़ने में जिस लड़के का जैसा नम्बर होता उसका आचरण वैसा ही समझा जाता। लड़का कितना भी सदाचारी हो परन्तु पढ़ने में ठीक न हो तो उसका आचारण खराब लिखा जाता था । आचरण की चार श्रेणियाँ थीं । उत्तम, अच्छा, मध्यम, खराव। मैं उत्तम या अच्छा श्रेणी में रहता था। एक बार में दो महिने
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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