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________________ _ “२३२ .] आत्मकथा - दो एक महाराष्ट्री सज्जनों से भी दक्षिण के सत्य-शोधक• समाज का पता मुझे मिलगया था, इसलिये नाम बदलने की चिन्ता मुझे भी हुई पर सत्य शब्द बड़ा प्यारा था और समाज भी चाहिये था इसलिये शोधक की जगह ही सेवक आदि नाम डाला जा सकता था पर पीछे यही ठीक मालूम हुआ कि शोधक या सेवक कुछ न डाला जाय और सत्य-समाज ही नाम रहने दिया जाय, सो यही नाम रहा । .. सत्य-समाज की रूप रेखा काफी साफ थी फिर भी उसके . महत्व को बहुत कम लोगों ने समझा इसलिये बहुत से आदमी जो तुरंत सदस्य बनगये थे शाखा बना बैठे थे वे उत्साह ठंडा होजाने पर या उत्तरदायित्व का बोझ मालूम होनेपर हटने लगे, कुछ ने यह भी कहा कि हम नहीं समंझते थे कि ऐसा होगा । यद्यपि मलमें ही संघटनामें वे बातें थी पर उसकी विशालता आदि को बहुत कम ने समझ पाया था । हां, श्री चुन्नीलालजी, सूरजचन्द , रघुवीरशरण, आनन्द श्री रघुनन्दनप्रसाद जी आदि शुरू से ही आज तक दृढ़ हैं उनकी अनुरक्ति भी बढ़ती रही है पर बहुभाग ढीला पड़ता गया और नये नये लोग भी आते गये । उत्तरदायित्व का भान कराने के लिये उसके कुछ बाहरी नियम भी बदलते गये। ; .सत्य-समाज की स्थापना समस्त सुधारों का संग्रहात्मक संस्करण है और उसमें अन्य अनेक सुधारों तथा क्रान्तियों का बीज भी रक्खा गया है। इसकी स्थापना से. मैंने एक प्रकार की मुक्तता ___ का अनुभव किया है। ...... ..
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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