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________________ जैनधर्म का मर्म [२२५ मुझे भी जची कि पांच साल में न जाने क्या हो ? पर मैंने यह 'सोच लिया कि लेखमाला पूर्ण विचार के साथ लिखी जायगी। दूसरों की पकड़ में साधारणतः कोई बात आसके ऐसी बात न लिखूगा। . लेखमाला लिखे जाने के दो ढाई वर्ष पहिले डायरी में मैंने लेखमाला की रूपरेखा और कुछ विचार नोट करके लिख लिये थे। उनपर मैं समय समय पर विचार करता रहता था और नये विचार भी जोड़ता रहता था । अगर बाबू छोटेलालजी से चर्चा न होती तो इन्हीं नोटों के आधार से चार पांच वर्ष बाद लेखमाला लिखी जाती पर अब उसके बहुत पहिले ही लेखमाला लिखना निश्चित होगया । लेखमाला की घोपणा कुछ महीने पहिले ही कर दी गई। दो लेख सामान्य व्याख्यापर थे इसलिये तो कुछ गड़गड़ न मची पर तीसरे लेख के निकलते ही तहलका मच गया उसमें जैनधर्म की प्राचीनता पर हमला सा किया गया था । फिर आगे के लेख, सर्वज्ञता आदि का वर्णन तो मानों जले पर नमक छिडकते रहे । इससे प्रचंड सुधारक कहलानेवाले भी मुझसे घृणा करने लगे। आज तक जिनको में प्रचंड सुधारक और निष्पक्ष विचारक समझता था उन्होंने सबसे ज्यादा आक्रमण किया । मैंने देखा कि उनके विरोध में और पुराने पंडितों के विरोध में कोई फर्क नहीं है। बड़े बड़े सुधारकों ने भी मतभेद को शत्रुता समझा । मेरा काही सन्मान न हो जाय, कोई मुझे व्याख्यान के लिये न बुलाले, जहां मेरी आजीविका यी यहां से छुड़ादी जाय तो अच्छा, इसका प्रयत्न अच्छे अच्छे सधारकों ने भी किया, पन पढ़ना तथा मगाना भी बन्द किया, कराया,
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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