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________________ २२२] आत्मकथा इसी बात को लेकर अहमदाबाद की पर्युषण व्याख्यान माला में मैंने तीनों सम्प्रदायों की एकता पर व्याख्यान दिया । उसमें मतभेदों को गौणकर या समन्वय करके तीनों सम्प्रदायों को मिलाकर एक जैनत्व पर जोर दिया गया था । अब मैं आन्दोलन के लिये ऐसा ही कोई विषय चाहता था। जैनधर्म के गहरे अध्ययन से मैं इस निश्चय पर पहुँच गया था कि आज के वैज्ञानिक युग में ये पुराने धर्म अपने ज्यों के त्यों रूपमें टिक नहीं सकते । भूगोल आदि का प्रश्न सामने आनेपर जैन विद्वानों को किस प्रकार बगलें झांकना पड़ती हैं यह मैं छोटे से ही देखता आता था, प्राणिशास्त्र की खोज अब इतनी हुई है कि पुरानी मान्यताएँ बहुत सी बदलना पड़ेंगी, द्रव्यक्षेत्र काल भाव भी ऐसा बदल गया है कि जैनाचार के पुराने नियम अब उतने उपयोगी नहीं हैं, कालमोह आदि के कारण भी जैन शास्त्रों में विकार घुस गये हैं यह भी समझता था । यह सब था पर जैन संस्कारों में जन्म से ही रहने के कारण जैनधर्म का मोह बहुत था । महावीर स्वामी पर असाधारण भक्ति थी इसलिये मन ही मन सोचा करता था कि मेरा जैनधर्म ऐसा अकाट्य बन जाय कि कट्टर से कट्टर नास्तिक और बड़े से बड़ा वैज्ञानिक उसका खण्डन न कर सके; ऐसा विशाल बन जाय कि एशिया यरुप आदि सभी देशों के लोग उसे अपनासकें ऐसा सुधरजाय कि आज की परिस्थति के लिये विलकुल मौजूं हो। .. एक तरफ निष्पक्ष विचारकता दूसरी तरफ जैनधर्म का - मोह दोनों की गुजर कैसे हो इसी चिन्ता में रहनेलग । इतने में एकबार . .: कलकत्ते के बावू छोटेलाल जी सेठ ताराचन्द जी के यहाँ बैठे थे।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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