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________________ जैनधर्म का मर्म [२२१ मेरे जीवन की कली आखिर थी ही कितनी सी, इसलिये उसका फल भी छोटा सा वना, पर उसको खिलने का बहुतसा श्रेय इन आन्दोलनों को दिया जा सकता है । [२४] जैनधर्म का मर्म बम्बई में आनपर तीनों सम्प्रदायों से मेग गहरा ताल्लुक होगया था । स्थानकवासी सम्प्रदाय के मुखपत्र जैनप्रकाश का तो मुख्य लेखक था और करीब दस वर्ष तक अर्थात् जब तक मुम्बई रहा तब तक मुख्य लेखक रहा इसलिये स्थानकवासी समाज की समस्याएँ और उन लोगों की मनोवृत्तियों से काफी परिचित हुआ । मूर्तिपूजक श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्यालय में न्याय और मागधी तथा धर्मशास्त्र का अध्यापक था इसलिये उनसे भी काफी परिचय बढ़ा, दिगम्बर समाज से तो जन्म का ही परिचय था । एक तो वम्बई आने के पहिले ही कुछ विचारकता और निष्पक्षता आर्गई थी, इन्दोर में ही में स्थानकवासी और मूर्तिपूजक श्वेताम्बर साधुओं से मिलता जुलता था। बंबई आनेपर तीनों सम्प्रदाय के साहित्य देखने से विचारकता तथा निष्पक्षता को और भी पष्टि मिली और एक समय ऐसा आगया कि जब मझे तीनो सम्प्रदायों में विकार नजर आने लंग और यह सोचने लगा कि तीनों में जैनत्व है पर यह तीनों में विकृत है, इसलिये मेरा ध्यान इस तरफ जाने लगा कि तीनों सम्प्रदायों की एकता से की जाय और तीनों में आये हुए विकार कैसे हटाये जाय।. .
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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