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________________ - २१२:1 - आत्मस्था मुझे जो सफलता मिली थी उसके कारणों में थोड़े बहुत अंशों में पंडिताई भी थी. पर उससे ज्यादा थीं श्रमशीलता और सब से जादा था. शास्त्रों में विजातीयवित्रा का समर्थन । इसलिये विजातीय विवाह की सफलता में मुझे घमंड करने का पर्याप्त करण न था पर ___ घमंड आगया : जरूर, इसलिये जब विधवाविवाह के प्रकरण में ___पंडितों का सामना करने का अवसर आया तब मैंने अपना नाम सव्यसाची रक्खा... ... . : . . . .: . सव्यसाची अर्जुन का नाम है और अर्जुन ऐसा धनुर्धर हुआ है जिसके आगे, कोई टिक, न सकता था ... मेरे सामने कोई टिक नहीं.सकता. इस. घमंड़ में आकर मैंने अपना नाम भी अर्जुन के . समान रक्खा । और अर्जुन के बहुत से नामों में से जो सव्यसाची'. का चुनाव किया वह घमंड की सीमा थी, उसे विद्यामद तक कहा जा सकता है । सत्य वायें हाथ को कहते हैं अर्जुन - वायें हाथ से. भी वाण छोड़ सकता था इसलिये. उसका नाम सव्यसाची था ।, मैंने मनमें सोचा कि विरोधियों को मैं वायें हाथ से भी परास्त कर सकता हूं इसलिये मैं सव्यसाची बनगया । . . . : . किसी समय जो मुझमें दीनता थी उसासे मुझमें यह उन्माद, या अहंकार आगया था । और जैसे लोगों से भिड़ना था उनकी मनो. वृत्ति भी इसी तरह की थी इसलिये भी इस क्षुद्रता को उत्तेजन मिला। .. खैर, इस तरह. सव्यसाची बनकर विधवाविवाह का खुब समर्थन किया। एक बार कल्याणी देवी के नाम से अपने लेखों का विरोध भी किया फिर वहिन कल्याणी: के लेख का सव्यसाची, " . . . .
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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