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________________ जैनजगत का सम्पादन [ १९७ इससे पाठकों को खूब नया नया मसाला मिलता था । यही कारण . है कि जोर शोर से बहिष्कार होने पर भी पत्र टिका रहा और घाटे की पूर्ति भी मित्रों की तरफ से और समाज की तरफ से होती रही। इस विषय में सब से अधिक उल्लेखनीय वात है मेरा और प्रकाशकजी का प्रेम । हम दोनों एक दूसरे की सुविधाओं का पूरा खयाल रखते थे। विशेष मतभेद तो था ही नहीं, अगर थोड़ा बहुत मतभेद होता तो एक दूसरे के कार्य का समर्थन करते थे । यही कारण है कि जब मैंने सत्यसमाज की स्थापना की और पत्र जैनसमाज के बाहर जाने लगा तब प्रकाशक जी का कुछ मतभेद रहने पर भी उनने बरावर मेरी इच्छा के अनुसार काम किया। यहां तक कि जब मैंने पत्र का नाम बदल कर सत्यसन्देश करना चाहा तव भी उनने कोई इतराज न किया । हालां कि उनकी इच्छा नाम बदलने की और कार्यक्षेत्र बदलने की न थी। .. इतना करने के बाद भी जब पत्र वर्धा आया तब पत्र पर करीब ७००) रु. का ऋण था वह भी उनने चुका दिया और फिर सत्यसन्देश से नहीं लिया। ऐसे अच्छे सहयोगी मित्र के पाने से ही पत्र ऐसा कार्यक्षम बन सका। . जैन जगत और सत्यसन्देश के सम्पादन द्वारा मुझे समाजसेवा का अच्छा अवसर मिला। यह पत्र न होता तो जिस रूपमें मैं आन्दोलक बन सका उस रूपमें कभी न बन पाया होता , शायद. किसी दूसरे रूपमें साहित्यिक क्षेत्र में उतरा होता। पर जो कुछ हुआ उसमें जैनजगत या सत्यसन्देश का काफी हाथ है। जैनजगत का सम्पादन निष्फल नहीं गया।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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