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________________ १८२ : आत्म कथा . तक सबका समाधान न कर दूंगा तब तक खड़ा ही रहूंगा चाहे संवेरा ही क्यों न होजाय । साढ़े तीन घंटे के वाद विरोधी निरुत्तर होगये और सभा समाप्त हुई, मेरा उत्साह और साहस और भी वढा:। :: . पर जब इन्दोर आया तो फाटक के भीतर आते ही मालूम हुआ कि सेठजीने विजातीयविवाह के आन्दोलन के कारण मुझें . विद्यालय से अलग करने का निश्चय कर लिया है। . मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । अमी कुछ दिन पहिली ही जिन सेठजी ने मुझे तीन तीन वार ज़ोर देकर आश्वासन दिया था,..या ये वे ही सेठजी हैं ? एक करोड़पति आदमी के वचनों का. इतना कम मूल्य हो सकता है- इसकी कल्पना ही शर्मनाकं मालूम हुई। . मेरे सुनने में आया कि सेठजी ने मेरे पक्ष में काफी जोर लंगाया था पर विरोधी विद्वानों का जो. दल आया था. उसने सारी पंचायत को वहकाकर काफी क्षोभ मचाया और अन्त में सेठजी को दंव जाना पड़ा। पहिले तो सत्य के लिये यह दवना ही व्यर्थ था. और अंगर देवेभी थे तो अपनी वचन-रक्षा का कुछ दूसरा इन्तजाम करना था। जब मैं इस बात का उलहना देने • गया ...तत्र उनमें जो लज्जा, संकोच, अरुचि और कातरता देखी. उससे · मुझे. मालूम हुआ कि महानुभावती का धन से बिलकुल. संबंध नहीं है । इसलिये घृणा के बदले मुझमें दया पैदा हुई । .. .: :.. :: : यों सेठजी बड़े संज्जन हैं, विचारक हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष में उनने मेरी तारीफ भी काफी की है और समर्थन भी किया है, लेकिन बहुत से आदमी लोकमत-का सामना विलकुल नहीं कर सकते। इसके लिये वे सत्य, हित और आत्मगौरव को भी कुचल
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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