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________________ १७२ ] S ...... आत्मकथा इन्दोर २५ सितम्बर १९२५ कहना है कि 'हम लोगों की लिये मैं इस इस जीवन में कर रहना पड़ा मेरे साथियों का मुझ से अपेक्षा आपने बहुत उन्नति की है' थोड़ी देर के बात को मानलेता हूँ लेकिन मेरा यही विचार है कि दो तनि बातों की कभी से मुझे बहुत अवनत हो है इसलिये कभी कभी यह विचार आता है कि यह जन्म जैसे तैसे समाप्त हो जाय फिर सम्भवतः दूसरे जीवन में कुछ काम कर सकूं | लेकिन विचारने से मालूम होता है कि जो इतनी सामग्री में कुछ नहीं कर सकता वह अकर्मण्य आगामी जीवन में भी क्या कर सकता है !....... इन थोड़े से पृष्ठों से पता लगता है कि किस प्रकार अच्छे चुरे, समझदारी या पागलपन से भरे हुए विचारों के सागर में गोते लगाते हुए अशान्त जीवन विताया हैं वर्तमान परिस्थिति से असन्तोष और उछलकर कुछ तीव्र गति से आगे बढ़ने की लालसा सदा बनी रही है, पर उन विचारों के अनुसार जीवन न वना सका उस मार्ग में कुछ बढ़ा तो अवश्य पर बहुत कम, दस दस वर्ष तक विचार भीतर ही भीतर सड़ते रहे और फूँक फूँक कर पैर रखने के समान धीरे धीरे प्रगट हुए। फिर भी लोगों ने यही कहा कि मैंने विचारों के प्रकाशित करने में उतावली की है । सन् २५ से मैं कुछ प्रचण्ड आंदोलक वन गया इसलिये डायरी बहुत कम भर पाया, बहुत से विचार तो जैन-धर्म-मीमांसा आदि से प्रगट हो गये हैं फिर भी जो चीज़ पाठकों के सामने रखने लायक मिलेगी - रख दी जायगी ।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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