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________________ इन्दोर में [ १५७ नाटक देख लिया, नहीं तो उन स्थानों पर बैठकर कब नाटक देखने का भाग्य था, इतना ही नहीं मंच और नेपथ्य में भी जा सकता था इसलिये नाटकों के नंगे रूप भी देखे, और नाटक - जगत् के निकट परिचय में रहकर मानव प्रकृति या दुरंगी दुनिया के नये नये अनुभव भी पाये । रुपया गिनने के लिये रुपयों की थैली तो न मिली इसलिये अनुभव की थैली में से अनुभव गिनने लगा । अमुक आदमी ने ऐसी बदमाशी की इससे यह अनुभव मिला, उसने इस प्रकार झूठ बोला इससे वह अनुभव मिला। इस प्रकार अनुभव गिन निन कर रुपयों की गिनती की कमी पूरी करने लगा । आज भी ठगे जाने पर ऐसी ही गिनती किया करता हूं । पर इन बातों में जैसी चाहिये वैसी अक्ल अभी तक नहीं आ पाई । कह लेता हूँ मेरा दिल दयालु और कोमल है पर इसकी अपेक्षा यह कहना ठीक होगा कि हृदय संकोची और निर्बल है । खैर, एक बार की अवसर - मूढ़ता ने जीवन भर के लिये इस मार्ग से निवृत्त कर दिया । सोचता हूं यह अच्छा ही हुआ नहीं तो नाटक कम्पनी से निकली हुई मेरे जीवन की गंगोत्री सिनेमा - सागर के किस तट पर गंगासागर बनाती यह कहना कठिन है । अत्र तो यहीं सोचता हूं कि जीवन का फूल किसी नर्तकी की वेणी में न गुथकर भगवान भगवती के पैरों पर चढ़ा दिया गया यह सौभाग्य ही है । संभव है आर्थिक दृष्टि से कुछ अधिक अच्छा रहा होता पर धन पाकर भी धनी खोया होता ।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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