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________________ १२२). आत्म कथा जागा । कभी लेट जाता था, कभी टहलने लगता था, कभी वत्ती. - तेज करके पन्ने पलटने . लगता था कभी वत्ती धीमी करक सोचने लगता था। शान्ता (मेरी पत्नी) मजे में सो रही थी और मेरे हृदय में तूफान उठ रहा था या यों कहना चाहिये कि सुधारकता की प्रसवपीड़ा हो रही थी। मालूम नहीं वह कौनसी तिथि और तारीख थी पर मेरे जीवन की सब से अधिक महत्त्वपूर्ण रात्रि वही थी उसदिन मेरे आत्मा का जन्म हुआ था । उसके पहिले तो सिर्फ शरीर का ही जन्म था। रातभर विचार करने के बाद मैंने जो निर्णय किया उसका सार यह है "धर्म का जातियाँति से कोई सम्बन्ध नहीं, विजातीयविवाह का जैनधर्म समर्थन करता है, पाप रिवाज के ताड़ने में नहीं संक्लेश के परिणामों में है, विजातीय-विवाह से संक्लेशता का कोई सम्बन्ध नहीं, विवाह तो एक प्रकार का रिवाज़ है जैसी सुविधा हो वैसा रिवाज़ बनाना चाहिये, विधवाविवाह का रिवाज़ भी पाप नहीं है जैस. पुरुष. को अपना दूसरा विवाह करने में विशेष स्क्लश नहीं, वैसे नारी को भी नहीं, इसलिये विधवा विवाह भी विधुर विवाह के समान है आदि" - इस प्रकार रातभर में मैं विजातीय विवाह और विधवा विवाह का समर्थक बन गया । इतना ही नहीं उनके समर्थन के लिये मरा दृष्टिकोण भी स्वतन्त्र हो गया । अभी तक मैं शास्त्रों के जरिये दुनिया . पढ़ता था उसदिन से.अपनी आँख (विवेक) से. दुनिण पढ़ना सीग्गः। '. आज तो जन-समाज का साधारण पढ़ा लिखा आदमी भी:. इन बातों को जानता है, इन बीस वर्षों में काफी. परिवर्तन हो. म्याः;
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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