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________________ १०८ ] आत्म-कथा " धोती खरीदने के लिये जब हम दोनों वनारस की गलियों में चक्कर काटने लगे तत्र ऐसा मालूम हुआ मानों स्वर्ग के नन्दन वन में विहार करने लगे हों ! बनारस में रह कर मैंने कविता बनाने का खूब अभ्यास किया । हरएक जैन पत्र में कविता लिखने लगा, सम्पादकों की मांगें भी आने लगीं। यहां समय काफी मिलता था सिर्फ चार घंटा पढ़ाना पड़ता था इसलिये ६-७ घंटे में कविता लिखने, साहित्यावलोकन करने तथा पुगने गुरुओं से कुछ अध्ययन करने में लगाता था । आर्थिक चिन्ता से मुक्त होने के कारण काम में मन भी खूब लगता था । एक इस समय एक बार भक्ति का ज्वार भी आया। कुछ महीने तक यही क्रप रहा कि शाम को दो तीन घंटे भेलूपुर के जैन मंदिर में जा कर मूर्ति के आगे एकान्त में बैठा रहता । वहाँ बैठने में ऐसी निराकुलता तथा आनन्द का अनुभव होता था कि भेलूपुर जाने के कई घंटे पहिले से ही मेरा मन आनन्द - नृत्य करने लगता था । जैसे किसी मेल्टेले में जाने के पहिले बच्चे घर में ही उछलने कूदने लगते हैं उसी तरह मेरा मन प्रतिदिन दुपहर के दो तीन बजेसे ही भेलूपुर जाने के लिये उछलने कूदने लगता था । और वहाँ जितनी देर बैठता था वहाँ वैकुण्ठ या मोक्ष जैसी निराकुलता मालूम होती थी । इस प्रकार एकान्तसेवन, तथा भक्ति में तल्लीन होने की आकांक्षाने मेरे जीवन में अमिट स्थान बना लिया है, पिछले बीस वर्ष के सामाजिक द्वंदमय जीवन पर जब मैं नज़र डालता हूं तब •
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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