SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७८ ) ३, ३, ५५-५६, जहां इस विचारकी पुष्टि की गई है, कि इस प्रकार के चिन्हित अलंकार (प्रत्यय) शाखामों में ही केवल सही नही पाये गये हैं बल्कि साधारण तौर पर भो। फुट मोट नं०४ - इस प्रकारके रूपकोंका द्रोपदोके रूपले उदाहरण दिया जा सकता है जो महामारतके अनुसार पांघो पाण्डव भ्राताओको स्त्री थो। जैनमतके दिगम्बर आनायके पुराणों में इस यातका विराध किया गया है। और यह कहा गया है, कि वह केवल अनुनकी ही खी थी. जिसने उसको स्वयम्बरमें समाजके समक्ष जीता था। निस्सन्देह यह वात करीन कयास नहीं है कि ऐसे 'पुरुष जिनकी नेक और बदकी विचार शक्ति पाण्डवोंके समान उच्च अवस्था की थी, इतने भ्रष्टाचरण हो कि वह उसको एक ही समयमें पांच पतियोंसे संबंध करने पर बाध्य करें। सत्य यह है कि महान उपाख्यान के रचयिताने ऐतिहासिक घटनाओंको तोड मरोड कर अपने अलङ्कशिक आवश्यकाओंके योग्य बना लिया है, और सत्यार्थक हूंढ लेने का भार पाठकोंकी बुद्धि पर छोड़ 'दिया है। नवयौवना द्रोपदीका बधूरुपमें पांच पाण्डवोंके खान्दानमें प्रवेश करना, जीवन (Life ) और शान इन्द्रियों के संबंधसे इननीसद्वशता रखता है कि उसको महाभारतके रचयिता को अत्यात तात्र बुद्धि ध्यानमें लाये बगैर नहीं रह सक्ती थी, और उपने उमका अर्थात् द्रोपदीका तुरन्त अपने युद्ध के बड़े नाटकमें जो आत्माकी स्वामाविक और कर्म शक्तियोंके अन्तिम
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy