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________________ (५८) पर चढ़ करके ये प्रायः सर्वदा उपरिदेश ( श्राकाश ) को जाया करते थे। इसी कारण इनका नाम उपरिचर हुआ था। सत्य. युगके किसी समयमें याजक ऋपि और देवतायोके वीच एक भयानक विवाद उपस्थित हुआ। विवाद होने का कारण यह था कि ऋषिगण पशु हिमाको पाप समझ केवल धान्यादि वीज समह द्वारा याग करते थे। देवगण पियोंके इस व्यवहारसे सन्तुष्ट न हो कर एक दिन उनके निकट आ कर बोले-"याजक महाशय ! आप यह क्या कर रहे है ? 'अजेन यव्यं इस शास्त्रानुसार छाग पशु द्वारा याग करना उचित है।" मुनियोने उत्तर दिया, "ऐसा नहीं हो सकता है, पशु हिंसा करनेसे ही पाप होता है। 'वीर्जयैज्ञेषु यष्टव्य' इस वैदिकी शुतिके अनुसार वीज द्वारा ही याग करना उचित है। आप लोगोने जिस शास्त्र का वचन कहा उसमें भी अज शब्दसे वीजहीका उल्लेख किया गया है वह पशुवाचक नहीं है।" किन्तु देवताओं ने इसे स्वीकार करना न चाहा। वे बहुतसी युक्ति और प्रमाण दिखा कर अपना ही मत प्रवल करनेकी चेष्टा करने लगे। ऋपि भी उन लोगोंसे कम न थे। वे भी अनेक युक्ति और प्रमाणके इलसे देवताओंका मत खण्डन करने और अपने मतके प्रतिपादनमें यत्नवान् हुए। इसका विचार वहुत दिन तक चलता रहा, वाक्ययुद्ध भी बहुत हुआ, किन्तु कौनसा मत उत्तम है इसका कोई निर्णय न हो सका। ऐसे समयमें उपरिचर राजा जा रहे थे। दोनों पक्षोने दोनो मतमें कौनसा मत उत्तम है, इसके निर्णय
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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