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________________ ( ५६ ) समारोहके साथ मनाया गया जिनमेसे हर एकने अपना प्राजाजनक फल दिखलाया। हर यज्ञमें पलि-पशु या मनुष्यको स्वर्ग जाते हुये भी दिखाया गया। जैसे जैसे समय व्यतीत होते गया लोगोके हदयोसे मांसभत्तण व जीव हिंसाको घृणाजो उनमें प्रारंभिक धावस्थामें थी निकलती गई, यहां तक कि अन्नमें वलिदान वलि-प्राणीके लिये स्वर्गके निकटस्थ मार्ग माना जाने लगा ! इस प्रथाकी एक व्याख्या वास्तवमें वलिदानके शास्त्रोमें जो उस समयमें रचे गये थे कर दी गई और लोगोंके दिलोंमें इन रीतियों के लिये इतनी श्रद्धा हो गई कि बहुतसे आदमी हर्षपूर्वक यह विश्वास करके कि वे इस प्रकार तुरन्त स्वर्ग पहुंच जायेंगे स्वयम् अरनी वलि चढ़ाने के लिये तत्पर हो गये। अन्तमें सुल्ला और उसका कपटी वाहनेवाला मगर भी देवताओंके प्रसन्नार्य अपना अपना बलिदान कराने पाये और वेदी पर काट डाले गये। पिशाचका प्रण अब पूर्ण हो गया। उसने अपना बदला ले लिया और पाताललोकको चला गया। उसके चले जाने से बलिदानका धनावटी प्रभाव बहुत कुछ जाता रहा परन्तु चूंकि वह अपने साथ वयानों और महामारियोंका भी लेता गया, इस कारणवश उसकी ओर प्रारम्भमें लोगोंका ध्यान नहीं गया । नवीन रचे गये पाक्यके कि 'वलिप्राणी सीधा वर्गको पहुंच जाता है' अप्रमाणित होनेको अब लोग इस प्रकार,समझाने लगे कि यह पवित्र मन्त्रोंके उच्चारण या शुद्ध
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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