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________________ ( ५४ ) मनुष्योंके देशमें आया और पश्वतसे उस समय उसका समागम हुआ जब कि वह वसुके राज्यसे निकाला गया था और सोच विचार में था कि वह 'ज' शब्दके अपने ( नवीन ) अर्थ को किस प्रकार संसार में फैलावे । उसने परवनको अपने शत्रुसे बदला लेने में योग्य और प्रस्तुत सहायक जानकर उसके दुष्ट कार्यकी पूर्ति में सहायता देने की प्रतिज्ञा की । मनुष्य और पिशाच की इस अशुभ प्रतिज्ञाके अनुसार यह निश्चय हुआ कि परवन सगर के नगरको आय जहां पर महाकाल ( यह उस पिशाचका वास्तविक नाम था ) सब प्रकार के बत्रा ( रोग ) और मरी फैलायेगा जो पर्वत के उपायोसे दूर हो जायेंगी ताकि इस प्रकार परवतकी प्रतिष्ठा वहांके लोगोकी निगाहमें हो जाय जिन में वह अपने भावोंका प्रचार करना चाहता था । पिशाचने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और परवनने समस्त प्राणियो को बुरे बुरे रोगों में ग्रसित पाया जिनका वह मन्त्रों द्वारा सफलता पूर्वक इलाज करने लगा। परन्तु उस अभागे राज्यमें हर रोगकी जगह पर जो अच्छा हो जाता था, दो नये और रोग उत्पन्न हो जाते थे । यहां तक कि लोगोंको इस बातका विश्वास हो गया कि उन पर देवताका कोप है और उन्होने परवतसे, जिसको वह अब अपना मुख्य रक्षक समझने लगे थे, इस बारे में सम्मति ली । इस प्रकार कुछ समय व्यतीत हो गया और अन्तमें यह विचारा गया कि aafaaiको नवीन प्रथाके आरम्भके लिये सतय अनुकूल है। आरम्भ कालमें प्राणियो के 3 ↓ बलिदान ही संख्त
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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