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________________ ( ३५ ) करनेसे प्राप्त होती है, उत्पन्न होकर वह पश्चास्की सन्तानों में एक सुन्दर भजनोंके संग्रहके समान चला आया, जो कुछ समय व्यतीत होने पर श्रुतिके तौर पर माने गये, और फिर उनके भावार्थके भुला दिये जाने पर एक नये मतके वीज (मूल ) बन गये। सबसे प्राचीन मन्त्र अनुमानतः वे थे जो अव ऋगवेदमे शामिल है, सिवाय उनके जो जीवोंको बलिदान की आज्ञा देते हैं या किसी प्रकार उसका अनुमोदन करते है। उनका असली अर्थ अनुमानतः, उनके रचनेके समयमें घहुतसे मनुष्योंको मालूम था और चूंकि वह केवल लेखकी कुशलताके लिहाजसे ही सुन्दर नहीं गिने गये थे वरन् आत्मिक शुद्धताकी प्राप्तिके हेतु भी मुख्य कारण थे, इसलिये वह तुरन्त कंठस्थ कर लिये गये थे, और नित्य प्रति पूजापाठमें उनका व्यवहार रहस्यमयी शिक्षामें लवलीन ऋषि कवियों द्वारा होता था। समय के साथ उनकी प्रतिष्ठाके बढ़ते रहनेसे कुछ काल पश्चात् वह श्रुतिकी भांति पूर्णतया पूज्य माने गये और रहस्यवादको उल्झन में पड़ कर हर्ष माननेवाली रुझान (बुद्धि ) के द्वारा उनमे सव प्रकारके अदभुत गुण माने गये। इस कारण पश्चात् के लोगों ने उन मंत्रोंको, उनके भावार्थको, पूर्णतया न समझे हुये भी भाक्तपूर्वक स्वीकार किया, और इनको अपने धर्मका ईश्वरीय प्रमाण माना । ईश्वरकृत शास्त्रकी भांति कायम होकर पूज्य मन्त्रोंका संग्रह रहस्यवादका माधार हो गया और समय २ पर उसमें हेर फेर और वृद्धि हुई। सबसे पहली वृद्धि जो उसमें
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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