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________________ (२८) निकाशका स्वरूप दर्याफ्त करें। इस लिलसिलेमें पहिली बात जो जानने योग्य है वह यह है कि वचन चाहे वह किसी रूपमें हो और चाहे वह इरादतन बोला गया हो या नहीं, एक प्रकार की पौद्गलिक किया (अान्दोलन ) है जो मानसिक या जानुल्ल (कपाय ) वृत्तियोके प्रभावके ( एक प्रकारके ) सूक्ष्म माद्दे पर पड़नेसे पैदा होती है। यह क्रियायें ( आन्दोलन) फिर बाहरी हवामें प्रवेश करती है जिसके द्वारा वह सुनने वालोक कान तक पहुंच जाती है। मनकी वृत्तियां जो बचन की उत्पत्तिमें उपर्युक्त मुख्य भाग लेती है सूक्ष्म आन्दोलन है जो प्रात्साके दो भीतरी शरीरोमे उत्पन्न होती है और जो उन शरीरोके अभावमे असम्भव है। इसलिये जिस किसी गत्मा में पौद्गलिक लेश नहीं रहा है उसके लिये वचन असम्भव है इससे यह परिणाम निकलता है कि शरीरहित श्रात्मा अर्थात् सामान्य रीतिले शुद्ध जीव, लोगोंसे वाक्य द्वारा बचत व्यवहार नहीं कर सक्ता है। इसके अतिरिक्त चूकि पुद्गलके वंधतसे वाफई रूपले मुक्ति उसी समय मुमकिन है कि जब स्व-प्रात्मध्यान पूर्णताको प्राप्त हो इसलिये शुद्ध आत्माके लिये असंभव है कि वह दुसरेके मामिलातमे दिलचस्पी ले । अतः यह निश्चित है कि युतिका निकास. सिद्धारमा, जैसा कि धर्म“शास्त्रोका रचयिता ईश्वर कहा जाता है, नहीं हो सकता । 'यह बात भी याद रखने योग्य है कि सत्य देववाणी स्पष्ट भावमे ही हो 'सक्ती है क्योंकि तीर्थकर भगवानको सत्यके
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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