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________________ ( २४ ) मालूम था, ऋग्वेदके उस वाक्यसे विदित है, जिसमें जीवके जल व वनस्पतिमें प्रवेश कर जानेका वर्णन है ( देखो डी० ए० मैक्यन्जी साहबका इन्डियन मिथ ऐन्ड लोज्यन्ड पृष्ट ११६ । और वैदिक गुप्त रहस्यमयी शिक्षाके आधारभूत सिद्धान्त के सामान्य स्वरूपसे भी विदित है। अगर हम यास्कके साथ, जो वेदोंके टीकाकारोंमें बहुत प्रसिद्ध गुजरा है यद्यपि वह सबसे पहिला टीकाकार न था, सहमत होकर यह मानलें कि वेटोंमें तीन बडे देवता है, यानी अग्नि, जिसमा स्थान पृथ्वी है, वायु, या इन्द्र जिसका मुकाम वायु है, और सूर्य, जिसका स्थान प्राकाश है, तो यह वान महजहीमे समझमें आजायगी कि यह देवता अपने विभिन्न कर्तव्योंके कारण भिन्न भिन्न नामोंसे प्रसिद्ध है (देखो डब्लु० जे० क्लिकिन्न साहवकी हिन्दू मेथोलोजी पृष्ठ ६) हमने इन्द्रका असली स्वरूप 'दि की औफ नोलेज में बताया है और पश्चातमें उसका यहां भी वर्णन करेंगे, लेकिन सूर्य केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता का चिह्न है और अग्निसे मतलव तपाग्निसे है। इस प्रकार वैदिक ऋषियों के तीन मुख्य देवता प्रात्माकी तोन दशाप्रोके चिन्ह है, सूर्य उसकी स्वाभाविक दिव्य छविका प्रकाशक है, इन्द्र उसको पुद्गल द्रव्यके स्वामी और भोगताके रूपमें दर्शाता है और अग्नि जो तपसे उत्पन्न होती है उसके पापोंके भस्म करने वाले गुणोंकी सूचक है। अग्निके तीन पांव तपके तीन आधारों, अर्थात् मन, वचन और कायको जाहिर करते हैं और
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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