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________________ (२२) ऐसे जीवमें जो उनके अर्थको, समझ कर, जाप करे, प्रगट हो जावें। उन्होंने जीवकी बहुतसी क्रियाओ-जैसे स्वासोच्छ्वासको भी अलं-- कृत कर डाला जैसा हम भागे दिखायेगे। मगर इस सवमें यह यात गर्मित है। कि ऋषियोको आत्मिक विद्याका प्रगाढ बोध था और यह सब वैदिक समयके आर्योकी उच्चसभ्यताके अनुकूल है। परन्तु जव कि ऋग्वेदके मन्त्रोके बनानेवालोमें आत्मिक ज्ञानके वोधका होना जरूरी मानना पड़ता है तो इन आत्मिक ज्ञानका अस्तित्व स्पट वैज्ञानिक ढंग पर होनाभी लाजमी मानना पडता है। लेकिन इस सत्य ज्ञानको हम अगर जैनमतमें नहीं तो और कहां दृढ़े, जो हिन्दुस्थानके और सब मतों में सबसे प्राचीन हैं। इससे यह नतीजा निकलता है कि जैन-दर्शन वास्तव में ऋग्वेद के पवित्र मंत्रोंकी, जिनके रचनेवालोने जीवकी विविध क्रियाओ और स्वाभाविक आत्मिक गुणोको कल्पित व्यक्तित्व (देवी देव. ताओके ) रूपमें वांधा, नीव है। वाकई यह ख्याल हो सकता है कि लांख्य दर्शन, न कि किसी दूसरे मतका कोई और शास्त्र ऋग्वेदकी नीव है क्योकि वेदोके काल्पनिक व्यक्तिगण एक ऐसे विचारके आधार पर हैं जो यथार्थमें सांख्य नहीं हैं तो भी वह सांख्यमतसे इतना मिलता है कि वह सांख्यमतसे बहुत कम विरुद्ध होगा। मगर सत्य यह है कि वर्तमानका साख्य दर्शन वेदों के बहुत पश्चात् कालका है वह वेदोके प्रमाणको मानता है और समयके लिहाजसे वेदोंके. पहलेका नहीं हो सका।
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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