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________________ (६१) प्रकारके कहे जाते हैं। (१-४) चार प्रकारके अर्थात् पृथ्वी, अप, अग्मि व वायुके परमाणु (५) आकाश (६) काल (७) दिक (८) जीवात्मा (8) मन । गुण निन्न प्रकारके हैं अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्श संख्या, नाप, प्रथकना, संयोग, विभाग, पूर्वकता, पश्चान्, समझ, सुख, दुःख, इच्छा, देष, और प्रयत्न। परंतु शब्द आकाशका गुण कहा गया है। कर्म पांच प्रकारका है, अर्थात् उक्षेपन ( ऊपरफी ओर फेंकना) अवक्षेपन (नीचेकी ओर फेंकना) आकुञ्चन ( सिकुडना) प्रसाग्नम् (फैलाना ) और गमनम् (चलना) इस प्रकारको संख्या द्रव्य, गुण और क्मकी है जो वैशेषिकों ने दी है, परन्तु वहां भी हमको सच्चे तत्वोंके वर्णनको क्षों कोशिश नही मिलती है। कुल विधि अत्यन्त अनिश्चित और वेहंगी है। सामान्य परिणाम दोषपूर्ण है । कर्मोकी भागवन्दी मथडीन और गुणों का वर्णन महा और अनियमित है। घायु, अप अग्नि और पृथ्वी चार भिन्न द्रन्य नहीं हैं. वरन् एकही द्रव्य प्रथात् पुद्गलके चार भिन्न रूप है, और शब्द ईथरका गुण नहीं है चरन् एक प्रकारका आन्दोलन है जो पौद्गलिक पटागौके हिलने जुलनसे पैदा होता है। मनको एक नये प्रकारका द्रव्य मानना भी स्पष्ट रीतिसे युक्तिसंगत नहीं है, क्योकि जीव मौर पुदगलले प्रथक मन कोई अन्य पदार्थ नहीं है। इस प्रकार हिन्दू मिद्धानके तीन अनिप्रसिद्ध दर्शन संधान हीन कि रहिन विचारको प्रगट करते है और पूर्ण रोनिसे
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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