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________________ १८. ते णं देवा वारसण्हं श्रद्धमासाणं श्रारणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससति वा । १६. तेसि रणं देवारणं बारसहि वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । २०. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे बारसहिं भवग्गणेहि सिज्भिस्संति बुज्झित्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्सति । 'समवाय-सुत्त १८. वे देव बारह अर्धमासों / पक्षों में आन / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । ४४ १९. उन देवों के वारह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है | २० कुछेक भव- सिद्धिक जीव हैं, जो वारह् भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय- १२
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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