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________________ ४१. ईसार कप्पे देवारणं जहणणं साइरेगं एवं पलिनवमं ठिई पण्णत्ता । ४२. ईसारखे कप्पे देवाणं प्रत्येगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ४३. जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणु माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ४४. ते णं देवा एगस्स श्रद्धमासस्स श्रारणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । ४५. तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुपज्जइ । ४६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एगेणं भवग्गहणणं सिज्भिस्संति बुज्भिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सन्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । समवाय-सुतं ४१. ईशानकल्प देवों की जघन्यतः / न्यूनतः स्थिति एक पल्योपम से अधिक प्रज्ञ ४२. कुछेक ईशानकल्प देवों की एक सागरोपम स्थिति प्रजप्त है । ४३. जो देव सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव, मनु, मानुषोत्तर और लोकहित विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः एक सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ४४. वे देव एक अर्धमास / पक्ष में आन / हार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ - वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । ४५. उन देवों के एक हजार वर्ष में ग्राहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । ४६. कुछेक भवसिद्धिक जीव है, जो एक भवग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय- १
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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