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________________ तयेण घिइ-पणिय-वद्ध-कच्छण सोहणं तस्स यावि होज्जा। है, धृतिबल से कटिवद्ध तप द्वारा उसका शोधन भी हो सकता है। एत्तो य सुहविवागेसु सील-संजम णिय-गुण-तयोवहाणेमु सासु सुविहिए अणुकंपाऽऽसयप्पश्रोगतिफाल-मइविशुद्ध - भत्तपाणाई पयतमणसा हिय - सुहनोसेस-तिवपरिणाम-निन्छियमई-पयधिऊणं पसोगसुदाई जह य निव्वति उ बोहिलान । इधर सुखविपाक में शील, संयम, नियम, तप-उपधान में निरत सुविहित साधुओं के प्रति अनुकम्पा के आशय-प्रयोग एवं कालिक मतिविशुद्धि से भक्तपान/भोजनपानी मनोप्रयत्न, हित, सुख, निःश्रेयस्, तीन भाव-परिणाम एवं निश्चितमति से प्रयोगशुद्धि-पूर्वक देते है तथा जिस प्रकार भवपरिनिई त एवं वोधिलाभ प्राप्त करते है, उनका परिकीर्तन है। जह य परित्तोफरेंति नर-निरय तिरिय -सुरगतिगमण - विपुलपरियट्ट-प्रति-भय-विसायसोफ - मिच्छत - सेलसंकर्ड अण्णाणतमंधफार-चिपिखल्लसुदुत्तारं जर-मरण-जोणि-संखुभियचफ्फवालं सोलसकसायसावय- पयंड-चंड - अणाइयंअगवदग्गं संसारसागरमिणं । इसमें नर, नारक, तिर्यञ्च और देवगति-गमन के लिए विपुल परिवर्त वाले, अरति, भय, विपाद, णोक और मिथ्यात्वरूपी शैलों से संकुल, अज्ञानरूपी अंधकार से परिपूर्ण, अत्यधिक सुदुस्तर, जरामरण और योनि से संक्षुब्ध चक्रवाल वाले, सोलह कपायरूपी अत्यन्त चण्ड / भयंकर श्वापदों/खूखार प्राणियों से युक्त अनादि-अनन्त संसार-सागर को जिस प्रकार सीमित करते हैं- उसका आख्यान जह य निबंधति पाउगं सुरगणंस, जह य अणुभवंति सुरगणविमाण - सोपखाणि प्रणोवमाणि, तमो य फालतरच्चुनाणं इहेव नरलोगमागयाणं जिस प्रकार देवलोक के लिए वे आयुप्य का वन्ध करते है, जिस प्रकार देवगण के विमानों के अनुपम सुखों का अनुभव करते है, वहां से कालान्तर में च्युत हो इसी समयाय-सुत्त २४३ समवाय-द्वादशांग
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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