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________________ ( १६ ) श्रद्धान निश्चय का, प्रवृत्ति व्यवहार की करना मानना, . मिथ्या कैसे है ? . पृष्ठ नं. २४६ में कहते हैं कि “तू ऐसा मानता है कि-सिद्ध समान शुद्ध आत्मा का अनुभवन सो निश्चय और व्रत, शील, संयमादिरूप प्रवृत्ति सो व्यवहार, सो तेरा ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि किसी द्रव्यभाव का नाम निश्चय और किसी का नाम व्यवहार-ऐसा नहीं है । एक ही द्रव्य के भाव को उस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है, उपचार. से उस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है।" जैसे मिट्टी के घड़े को 'घी का घड़ा' कहना यह व्यवहार है। आगे पत्र नं. २५० में एक प्रश्न उठाया है कि-"श्रद्धान तो निश्चय का रखते हैं और प्रवृत्ति व्यवहार रूप रखते हैं। इस प्रकार हम दोनों को अंगीकार करते हैं। सो ऐसा भी नहीं बनता क्योंकि निश्चय का निश्चय रूप और व्यवहार का व्यवहार रूप श्रद्धान करना योग्य है। एक ही नय का श्रद्धान होने से एकान्त मिथ्यात्व होता है तथा प्रवृत्ति में नय का प्रयोजन नहीं है। प्रवृत्ति तो द्रव्य की परिणति है, वहां जिस द्रव्य को परिणति हो उसको उसी की प्ररूपित करे सो निश्चयनय और उस ही को अन्य द्रव्यं की प्ररूपित करे सो व्यवहार नय-ऐसे अभिप्रायानुसार प्ररूपण से उस प्रवृत्ति में दोनों नय बनते हैं ।" इस प्रकार के कथन को सुन कर फिर शिप्य जिज्ञासां प्रगट करता है कि "तो क्या करें.? सो कहते हैं-निश्चय नय से जो निरूपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगीकार करना और व्यवहार नय से जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मान कर उसका
SR No.010826
Book TitleShastro ke Arth Samazne ki Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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