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________________ १८० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. शास्रो मध्यस्थ बुध्धिथी मनन करी न्यायने कांटे तोलन करवुं. ए उपरथी अवश्य एटलुं महावाक्य नीकळशे, के जे आगळ नगारापर डांडी ठोकीने कहेवायुं हतुं ते खरं छे, जगत् गाडरियो प्रवाह छे. धर्मना मतभेद संबंधीना शिक्षापाठमां दर्शाव्या प्रमाणे अनेक धर्ममतनी जाल लागी पडी छे. विशुध्ध आत्मा कोइकज थायछे, विवेकथी तत्त्वने कोइकज शोघे छे. एटले जैन तत्त्वने अन्यदर्शनियो शामादे जाणता नथी ए खेद के आशंका करवा जेवुंज नथी. छतां मने बहु आश्चर्य लागे छे के केवळ शुध्ध परमात्मतत्त्वने पामेला, सकळ दूषणरहित, मृषा कहेवानुं जेने कंइ निमित्त नयी एवा पुरुषनां कलां पवित्रदर्शनने पोते तो जाण्युं नहीं, पोताना आत्मानुं हित तो कर्यु नहीं, पण अविवेकथी मतभेदमा आची जइ केवळ निर्दोष अने पवित्र दर्शनने नास्तिक शा माटे कछु हशे ? पण ए कहेनारा एनां तवने जाणता नहोता. वळी एनां तच्चने जाणवाथी पोतानी श्रध्धा फरशे, त्यारे लोको पछी पोताना आगळ कहेला मतने गांठशे नहीं; जे लौकिक मतमां पोतानी आजीविका रही छे, एवा वेदादिनी महत्ता घटाडवाथी पोतानी महत्ता घटशे; पोतानुं मिथ्या स्थापित करेलुं परमेश्वर पद चालशे नहीं. एथी जैनतत्त्वमां प्रवेश करवानी रुचिने मूळधीज बंध करवा लोकोने एवी भ्रममुरकी आपी के जैन नास्तिक छे. लोको तो विचारा गभरुगाडर छे;
SR No.010820
Book TitleMokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1962
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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