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________________ तत्वाववध भाग १५० Ge सघळा धर्ममतोना विचार जिनप्रणीत वचनामृतसिंधु आगळ एक बिंदुरूप पण नथी. जैनमत जेणे जाण्यो, अने सेव्यो ते केवळ निरागी अने सर्वज्ञ थइ जाय छे. एना प्रवर्त्तको केवा पवित्र पुरुषो हता ! एना सिद्धांतो केवा अखंड संपूर्ण अने दयामय छे ! एमां दूषणतो कांइ छेज नहि ! केवळ निर्दोष तो मात्र जेतुं दर्शन छे ! एवो एक्के पारमार्थिक विषय नथी के जे जैनमां नहीं होय अने एवं एक्के तत्त्व नथी के जे जैनमां नथी; एक विषयने अनंत भेदे परिपूर्ण कहेनार ते जैनदर्शन छे. प्रयोजनभूततत्व एना जेवुं क्यांय नथी. एक देहमां वे आत्मा नथी; तेम आखी सृष्टिमां वे जैन एटले जैननी तूल्य बीजुं दर्शन नथी. आम कहेवानुं कारण शुं ? तो मात्र तेनी परिपूर्णता, निरागीता, स्रत्यता अने जगद् हितेपिता. शिक्षापाठ ९६. तत्त्वावबोध भाग १५. न्यायपूर्वक आटलं मारे पण मान्य राखबुं जोइए के ज्यारे एक दर्शनने परिपूर्ण कही बात सिद्ध करवी होय त्यारे प्रतिपक्षनी मध्यस्थ बुध्धिथी अपूर्णता दर्शाववी जोइए. पण ए वे वातपर विवेचन करवा जेटली अहीं जग्यो नथी; तोपण थोढुं थोडं कहेतो आव्यो छई. मुख्यत्वे कदेवानुं के ए वात जेने रुचिकर थती न होय के असंभवित लागती होय तेणे जैनतत्त्वविज्ञानी शास्त्रो अने अन्य तत्त्वविज्ञानी
SR No.010820
Book TitleMokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1962
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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