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________________ क्षमापना. १०७ छडे हुं पापी छई, हुं बहु मदोन्मत्त अने कर्म रजथी करीने मलिन छडं. हे परमात्मा ! तमारां कहेलां तत्त्वविना मारो मोक्ष नवी. हुं निरंतर प्रपंचमां पड्यो छ ; अज्ञानयी अंघ यो छ ; मारामां विवेकशक्ति नयी अने हुँ मूढ छड, हुं निराश्रित छ, अनाथ छ. निरागी परमात्मा ! हवे हुं नमारं, तमारा धर्मनुं अने तमारा मुनिनुं शरण गृहुं छडं. मारा अपराध क्षय थड़ हुं ते सर्व पापयी मुक्त घ ए मारी अभिलापा है. आगळ करेलां पापोनो हुं हवे पश्चाताप करूं छडं. जेम जेम हुं मूक्ष्म विचारयी उंडो उतरु छडं तेम तेम तमारा तत्त्वना चमत्कारो मारा स्वरुपनो प्रकाश करे छे, तमे निरागी, निर्विकारी, सच्चिदानंदस्वरूप, सहमानंदी, अनंतज्ञानी, अनंतदर्शी, अने त्रैलोक्यमकाशक छो. हुँ मात्र मारा हितने अर्ये तमारी साक्षीए क्षमा चाहुं छ. एक पळ पण नमारां कहेलां तत्त्वनी शंका न थाय, तमारा कहेला रस्तामां अहोरात्र हुं रहूं, एज मारी आकांक्षा ने वृत्ति थाओ ! हे सर्वज्ञ भगवान् ! तमने हुँ विशेष शुं कहुं ? तमारायी कंड़ अजाण्युं नयी. मात्र पश्चातापी हुं कर्मजन्य पापनी क्षमा इच्छु छ - ॐ शांतिः शांति शांति :
SR No.010820
Book TitleMokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1962
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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